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सामाजिक-धर्म एवं दायित्व
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विवाह किया था। जैन कथा-साहित्य के अनुसार, ऋषभदेव के पूर्व बहन ही यौवनावस्था में पत्नी बनती थी, उन्होंने ही इस प्रथा को समाप्त कर विवाह-संस्था की स्थापना की थी, अतः यह मानना उचित नहीं है कि उन्होंने विधवा-विवाह किया था। समाज में बहुपत्नी प्रथा की उपस्थिति के अनेक उदाहरण जैन आगम-साहित्य और कथा-साहित्य में मिलते हैं, यद्यपि बहुपति-प्रथा का एक मात्र द्रौपदी का उदाहरण ही उपलब्ध है, किन्तु इनका कहीं समर्थन किया गया हो, या इन्हें नैतिक और धार्मिक-दृष्टि से उचित माना गया हो, ऐसा कोई भी उल्लेख मेरे देखने में नहीं आया। आदर्श के रूप में सदैव ही एक-पत्नीव्रत या एकपतिव्रत की प्रशंसा की गई है।
वस्तुतः, जैनधर्म वैयक्तिक-नैतिकता पर बल देकर सामाजिक-सम्बन्धों को शुद्ध और मधुर बनाता है। उसके सामाजिक-आदेश निम्न हैं - जैनधर्म में सामाजिक-जीवन के निष्ठा-सूत्र 1. सभी आत्माएँ स्वरूपतः समान हैं, अतः सामाजिक-जीवन में ऊँच-नीच के वर्गभेदखड़े मत करो।
- उत्तराध्ययन 12/37. 2. सभी आत्माएँ समान रूप से सुखाभिलाषी हैं, अतः दूसरे के हितों का हनन, शोषण या अपहरण करने का अधिकार किसी को नहीं है।
- आचारांग 1/2/3/3. 3. सबके साथ वैसा व्यवहार करो, जैसा तुम उनसे स्वयं के प्रति चाहते हो।
- समणसुत्तं 24 संसार के सभी प्राणियों के साथ मैत्री-भाव रखो, किसी से भी घृणा एवं विद्वेष मत रखो।
____ - समणसुत्तं 86 गुणीजनों के प्रति आदर-भाव और दुष्टजनों के प्रति उपेक्षा-भाव (तटस्थ-वृत्ति) रखो।
- सामायिक-पाठ 1 संसार में जो दुःखी एवं पीड़ित जन हैं, उनके प्रति करुणा और वात्सल्यभाव रखो
और अपनी स्थिति के अनुरूप उन्हें सेवा- सहयोग प्रदान करो। जैनधर्म में सामाजिक-जीवन के व्यवहार-सूत्र
उपासकदशांगसूत्र, योगशास्त्र एवं रत्नकरण्ड-श्रावकाचार में वर्णित श्रावक के गुणों, बारह व्रतों एवं उनके अतिचारों से निम्न सामाजिक-आचारनियम फलित होते हैं -- 1. किसी निर्दोष प्राणी को बन्दी मत बनाओ, अर्थात् सामान्य जनों की स्वतन्त्रता में
बाधक मत बनो।
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