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सामाजिक-धर्म एवं दायित्व
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जैनधर्म और सामाजिक-दायित्व
यद्यपि प्राचीन जैन आगम-साहित्य में सामाजिक-दायित्व का विस्तृत विवेचन उपलब्ध नहीं है, किन्तु उसमें यत्र-तत्र कुछ बिखरे हुए ऐसे सूत्र हैं, जो व्यक्ति के सामाजिकदायित्वों को स्पष्ट करते हैं। जैन-आगमों की अपेक्षा परवर्ती साहित्य में मुनि और गृहस्थउपासक-दोनों के ही सामाजिक-दायित्वों की विस्तृत चर्चा है। सर्वप्रथम हम मुनि के सामाजिक-दायित्वों की चर्चा करेंगे।
जैन-मुनि के सामाजिक दायित्व-यद्यपि मुनि का मूल लक्ष्य आत्म-साधना है, फिर भी प्राचीन जैन-आगमों में उसके लिए निम्न सामाजिक-दायित्व निर्दिष्ट हैं -
1. नीति और धर्म का प्रकाशन-मुनि का सर्वप्रथम सामाजिक-दायित्व यह है कि वह नगरों या ग्रामों में जाकर जनसाधारण को सन्मार्ग का उपदेश दे। आचारांग में स्पष्ट रूप से निर्देश है कि मुनि ग्राम एवं नगर की पूर्व, पश्चिम , उत्तर और दक्षिण-दिशाओं में जाकर धनी-निर्धन या ऊँच-नीच का भेद किए बिना सभी को धर्म-मार्ग का उपदेश दे।' इस प्रकार, जन-साधारण को नैतिक-जीवन एवं सदाचार की ओर प्रवृत करना, यह मुनि का प्रथम सामाजिक दायित्व है। वह समाज में नैतिकता एवं सदाचार का प्रहरी है। समाज अनैतिकता की ओर अग्रसर न हो, यह देखना उसका दायित्व है, इसलिए समाज का प्रत्युपकार करना उसका कर्तव्य है।
2.धर्म की प्रभावनाएवं संघकी प्रतिष्ठा की रक्षा-सामान्यरूपसे संघका और विशेष रूप से आचार्य, गणी एवं गच्छ-नायक का यह अनिवार्य कर्त्तव्य है कि वे संघ की प्रतिष्ठा एवं गरिमा को अक्षुण्ण बनाए रखें। उन्हें इस बात का ध्यान रखना होता है कि संघ की प्रतिष्ठा का रक्षण हो, संघ का पराभव न हो, जैनधर्म के प्रति उपासक-वर्ग की आस्था बनी रहे और उसके प्रति लोगों में अश्रद्धा का भाव उत्पन्न न हो। निशीथचूर्णि आदि में उल्लेख है कि संघ की प्रतिष्ठा के रक्षण-निमित्त अपवाद-मार्ग का भी सहारा लिया जा सकता है, उदाहरणार्थ-मुनि के लिए मंत्र-तंत्र करना, चमत्कार बताना या तप-ऋद्धि का प्रदर्शन करना वर्जित है, किन्तु संघहित और धर्म-प्रभावना के लिए वह यह सब कर सकता है। इस प्रकार, संघ का संरक्षण आवश्यक माना गया है, क्योंकि वह साधना की आधारभूमि है।
3. भिक्षु-भिक्षुणियों की सेवा एवंपरिचर्या-जैन-मुनि का तीसरा सामाजिकदायित्व संघ-सेवा है। महावीर एवं बुद्ध की यह विशेषता है कि उन्होंने सामूहिक साधना
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