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________________ भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन संघ हो, संघ के प्रत्येक सदस्य का यह अनिवार्य कर्तव्य माना गया है कि वह संघ के नियमों का पूरी तरह पालन करे, संघ में किसी भी प्रकार के मनमुटाव अथवा संघर्ष के लिए कोई भी कार्य नहीं करे, एकता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए सदैव ही प्रयत्नशील रहे। जैनपरम्परा के अनुसार; साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका - इन चारों से मिलकर संघ का निर्माण होता है । नन्दीसूत्र में संघ के महत्व का विस्तारपूर्वक सुन्दर विवेचन हुआ है, जिससे स्पष्ट है कि जैन में नैतिक-साधना में संघीय-जीवन का कितना अधिक महत्व है । ' 278 8. श्रुतधर्म - सामाजिक दृष्टि से श्रुतधर्म का तात्पर्य है - शिक्षण-व्यवस्था सम्बन्धी नियमों का पालन करना । शिष्य का गुरु के प्रति, गुरु का शिष्य के प्रति कैसा व्यवहार हो, यह श्रुतधर्म का ही विषय है । सामाजिक संदर्भ में श्रुतधर्म से तात्पर्य शिक्षण की सामाजिक या संघीय व्यवस्था है। गुरु और शिष्य के कर्तव्यों तथा पारस्परिक सम्बन्धों का बोध और उनका पालन श्रुतधर्म या ज्ञानार्जन का अनिवार्य अंग है। योग्य शिष्य को ज्ञान देना गुरु का कर्तव्य है, जबकि शिष्य का कर्तव्य गुरु की आज्ञाओं का श्रद्धापूर्वक पालन करना है। 9. चारित्रधर्म - चारित्रधर्म का तात्पर्य है - श्रमण एवं गृहस्थ धर्म के आचारनियमों का परिपालन करना । यद्यपि चारित्रधर्म का बहुत कुछ सम्बन्ध वैयक्तिक-साधना से है, तथापि उनका सामाजिक पहलू भी है। जैन आचार के नियमों एवं उपनियमों के पीछे सामाजिक दृष्टि भी है। अहिंसा-सम्बन्धी सभी नियम और उपनियम सामाजिकशान्ति के संस्थापन के लिए हैं । अनाग्रह सामाजिक - जीवन से वैचारिक - विद्वेष एवं वैचारिक संघर्ष को समाप्त करता है। इसी प्रकार, अपरिग्रह सामाजिक-जीवन से संग्रहवृत्ति, अस्तेय और शोषण को समाप्त करता है । अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह पर आधारित जैन- आचार के नियम - उपनियम प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में सामाजिक दृष्टि से युक्त हैं, यह माना जा सकता है। 10. अस्तिकायधर्म - अस्तिकायधर्म का बहुत कुछ सम्बन्ध तत्त्वमीमांसा से है, अतः उसका विवेचन यहाँ अप्रासंगिक है। इस प्रकार, जैन - आचार्यों ने न केवल वैयक्तिक एवं आध्यात्मिक पक्षों के सम्बन्ध में विचार किया, वरन् सामाजिक - जीवन पर भी विचार किया है। जैन-सूत्रों में उपलब्ध नगरधर्म, ग्रामधर्म, राष्ट्रधर्म आदि का वर्णन इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि जैन आचारदर्शन सामाजिक-पक्ष का यथोचित मूल्यांकन करते हुए उसके विकास का भी प्रयास करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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