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________________ सामाजिक-धर्म एवं दायित्व 277 माध्यम से नियंत्रित करने वालाअधिकारी है। प्रशास्ता-स्थविर का कार्य लोगों को धार्मिकनिष्ठा, संयम एवं व्रत-पालन के लिए प्रेरित करते रहना है। हमारे विचार में प्रशास्तास्थविर राजकीय-धर्माधिकारी के समान होता होगा, जिसका कार्य जनता को सामान्य नैतिक-जीवन की शिक्षा देना होता होगा। 5. कुलधर्म-परिवार अथवा वंश-परम्परा के आचार-नियमों एवं मर्यादाओं का पालन करना कुलधर्म है। परिवार का अनुभवी, वृद्ध एवं योग्य व्यक्ति कुलस्थविर होता है। परिवार के सदस्य कुलस्थविर की आज्ञाओं का पालन करते हैं और कुलस्थविर का कर्त्तव्य है-परिवार कासंवर्द्धन एवं विकास करना तथा उसे गलत प्रवृत्तियों से बचाना। जैनपरम्परा में गृहस्थ एवं मुनि-दोनों के लिए कुलधर्म का पालन आवश्यक है, यद्यपि मुनि का कुल उसके पिता के आधार पर नहीं, वरन् गुरु के आधार पर बनता है। 6. गणधर्म-गण का अर्थ समान आचार एवं विचार के व्यक्तियों का समूह है। महावीर के समय में हमें गणराज्यों का उल्लेख मिलता है। गणराज्य एक प्रकार के प्रजासत्तात्मक-राज्य होते हैं। गणधर्म का तात्पर्य है-गण के नियमों और मर्यादाओं का पालन करना। गण दोमाने गए हैं- 1. लौकिक (सामाजिक) और 2. लोकोत्तर (धार्मिक)। जैन-परम्परा में वर्तमान युग में भी साधुओं के गण होते हैं, जिन्हें गच्छ कहा जाता है। प्रत्येक गण (गच्छ) के आचार-नियमों में थोड़ा - बहुत अन्तर भी रहता है। गण के नियमों के अनुसार आचरण करना गणधर्म है। परस्पर सहयोग तथा मैत्री रखना गण के प्रत्येक सदस्य का कर्तव्य है। गण का एक गणस्थविर होता है। गण की देशकालगत परिस्थितियों के आधार पर व्यवस्थाएँ देना, नियमों को बनाना और पालन करवाना गणस्थविर का कार्य है। जैन-विचारणा के अनुसार बार-बार गण को बदलने वाला साधक हीन दृष्टि से देखा गया है। बुद्ध ने भी गण की उन्नति के नियमों का प्रतिपादन किया है। 7.संघधर्म-विभिन्न गणों से मिलकर संघ बनता है। जैन-आचार्यों के संघ-धर्म की व्याख्या संघ या सभा के नियमों के परिपालन के रूप में की है। संघ एक प्रकार की राष्ट्रीय संस्था है, जिसमें विभिन्न कुल या गण मिलकर सामूहिक-विकास एवं व्यवस्था का निश्चय करते हैं । संघ के नियमों का पालन करना संघ के प्रत्येक सदस्य का कर्तव्य है। जैन-परम्परा में संघ के दो रूप हैं-1. लौकिक-संघ और 2. लोकोत्तर-संघ। लौकिक-संघ का कार्य जीवन के भौतिक-पक्ष की व्यवस्थाओं को देखना है , जबकि लोकोत्तर-संघका कार्य आध्यात्मिक-विकास करना है। लौकिक-संघ हो या लोकोत्तर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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