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________________ 276 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन है कि नागरिकों के द्वारा ग्रामवासियों काशोषण न हो। नगरजनों का उत्तरदायित्व ग्रामीणजनों की अपेक्षा अधिक है। उन्हें न केवल अपने नगर के विकास एवं अवस्था का ध्यान रखना चाहिए, वरन् उन समग्र ग्रामवासियों के हित की भी चिन्ता करनी चाहिए ; जिनके आधार पर नगर की व्यावसायिक तथा आर्थिक-स्थितियाँ निर्भर हैं। नगर में एक योग्य नागरिक के रूप में जीना, नागरिक-कर्तव्यों एवं नियमों का पूरी तरह पालन करना ही मनुष्य का नगरधर्म है। __ जैन-सूत्रों में नगर की व्यवस्था आदि के लिए नगरस्थविर की योजना का उल्लेख है। आधुनिक युग में जो स्थान एवं कार्य नगरपालिका अथवा नगरनिगम के अध्यक्ष के हैं, जैन-परम्परा में वही स्थान एवं कार्य नगरस्थविर के हैं। 3. राष्ट्रधर्म - जैन-विचारणा के अनुसार, प्रत्येक ग्राम एवं नगर किसी राष्ट्र का अंग होता है और प्रत्येक राष्ट्र की अपनी एक विशिष्ट सांस्कृतिक-चेतना होती है, जो ग्रामीणों एवं नागरिकों को एक राष्ट्र के सदस्यों के रूप में आपस में बाँधकर रखती है। राष्ट्रधर्म का तात्पर्य है- राष्ट्र की सांस्कृतिक-चेतना अथवा जीवन की विशिष्ट प्रणाली को सजीव बनाए रखना। राष्ट्रीय विधि-विधान, नियमों एवं मर्यादाओं का पालन करना ही राष्ट्रधर्म है। आधुनिक सन्दर्भ में राष्ट्रधर्म का तात्पर्य है- राष्ट्रीय एकता एवं निष्ठा को बनाए रखना तथा राष्ट्र के नागरिकों के हितों का परस्पर घात न करते हुए राष्ट्र के विकास में प्रयत्नशील रहना, राष्ट्रीय-शासन के नियमों के विरुद्ध कार्य न करना, राष्ट्रीय विधिविधानों का आदर करते हुए उनका समुचित रूप से पालन करना। उपासकदशांगसूत्र में राज्य के नियमों के विपरीत आचरण करना दोषपूर्ण माना गया है। जैनागमों में राष्ट्रस्थविर का विवेचन भी उपलब्ध है। प्रजातंत्र में जो स्थान राष्ट्रपति का है, वही प्राचीन भारतीयपरम्परा में राष्ट्रस्थविर का होगा, यह माना जा सकता है। 4. पाखण्डधर्म-जैन-आचार्यों ने पाखण्ड की अपनी व्याख्या की है। जिसके द्वारा पाप का खण्डन होता हो, वह पाखण्ड है । ' दशवैकालिकनियुक्ति के अनुसार, पाखण्ड एक व्रत का नाम है। जिसका व्रत निर्मल हो, वह पाखण्डी। सामान्य नैतिकनियमों का पालन करना ही पाखण्डधर्म है।सम्प्रति, पाखण्ड का अर्थ ढोंग हो गया है, वह अर्थ यहाँ अभिप्रेत नहीं है। पाखण्डधर्म का तात्पर्य अनुशासित, नियमित एवं संयमित जीवन है। पाखण्डधर्म के लिए व्यवस्थापक के रूप में प्रशास्ता-स्थविर का निर्देश है। प्रशास्तास्थविर शब्द की दृष्टि से विचार करने पर यह स्पष्ट लगता है कि वह जनता को धर्मोपदेश के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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