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________________ 280 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन पद्धति का विकास किया और भिक्षु-संघ एवं भिक्षुणी-संघ जैसी सामाजिक-संस्थाओं का निर्माण किया। जैनागमों में प्रत्येक भिक्षु और भिक्षुणी का यह अनिवार्य कर्त्तव्य माना गया है कि वे अन्य भिक्षुओं और भिक्षुणियों की सेवा एवं परिचर्या करें। यदिवे किसी ऐसे ग्राम या नगर में पहुँचते हैं कि जहाँ कोई रोगी या वृद्ध भिक्षु पहले से निवास कर रहा हो, तो उनका प्रथम दायित्व होता है कि वे उसकी यथोचित परिचर्या करें और यह ध्यान रखें कि उनके कारण उसे असुविधा न हो।' संघ-व्यवस्था में आचार्य, उपाध्याय; स्थविर (वृद्ध-मुनि), रोगी (ग्लान), अध्ययनरत नवदीक्षित मुनि, कुल, संघ और साधर्मी की सेवा-परिचर्या के विशेष निर्देश दिए गए थे। ___ 4. भिक्षुणी-संघ का रक्षण-निशीथचूर्णि के अनुसार, मुनिसंघ का एक अन्य दायित्व यह भी था कि वह असामाजिक एवं दुराचारी लोगों से भिक्षुणी-संघ की रक्षा करे। ऐसे प्रसंगों पर यदि मुनि-मर्यादा भंग करके भी कोई आचरण करना पड़ता, तो वह क्षम्य माना जाता था। 5.संघ के आदेशों का परिपालन- प्रत्येक स्थिति में संघ (समाज) सर्वोपरि था। आचार्य, जो संघ का नायक होता था, उसे भी संघ के आदेश का पालन करना होता था। वैयक्तिक-साधना की अपेक्षा भी संघका हित प्रधान माना गया था। संघ के हितों और आदेशों की अवमानना करने पर दण्ड देने की व्यवस्था थी। श्वेताम्बर-साहित्य में यहाँ तक उल्लेख है कि पाटलीपुत्र वाचना के समय संघ के आदेश की अवमानना करने पर आचार्य भद्रबाहु को संघ से बहिष्कृत कर देने तक के निर्देश दे दिए थे। गृहस्थ-वर्ग के सामाजिक-दायित्व 1. भिक्षु-भिक्षुणियों की सेवा-उपासक-वर्ग का प्रथम सामाजिक-दायित्व था- आहार, औषधि आदि के द्वारा श्रमण-संघ की सेवा करना । अपनी दैहिकआवश्यकताओं के सन्दर्भ में मुनिवर्ग पूर्णतया गृहस्थों पर अवलम्बित था, अतः गृहस्थों का प्राथमिक-कर्त्तव्यथा कि वे उनकी इन आवश्यकताओं की पूर्ति करें। अतिथि-संविभाग को गृहस्थों का धर्म माना गया था। इस दृष्टि से उन्हें भिक्षु-भिक्षुणी-संघ का माता-पिता' कहा गया था, यद्यपि साधु-साध्वियों के लिए भी यह स्पष्ट निर्देश था कि वे गृहस्थों पर भारस्वरूप न बनें। 2. परिवार की सेवा- गृहस्थ का दूसरा सामाजिक-दायित्व अपने वृद्ध मातापिता, पत्नी, पुत्र-पुत्री आदि परिजनों की सेवा एवं परिचर्या करना है। श्वेताम्बर-साहित्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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