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________________ भारतीय आचार - दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन - समाज की आर्थिक प्रगति उसके सदस्यों की सम्पदा के अर्जन की आकांक्षा और श्रम-निष्ठा पर निर्भर करती है। नैतिक दृष्टि से अर्थोपार्जन की प्रवृत्ति और श्रमनिष्ठा आलोच्य नहीं रही है। यह भय निरर्थक है कि अनासक्ति और अपरिग्रह से आर्थिक प्रगति अवरुद्ध होगी । अपरिग्रह का सिद्धान्त अर्थ के अर्जन का वहाँ तक विरोधी नहीं है, जहाँ तक उसके साथ शोषण की दुष्प्रवृत्ति नहीं जुड़ती है । सम्पदा के अर्जन के साथ जब हिंसा, शोषण और संग्रह की बुराइयाँ जुड़ती हैं, तभी वह अनैतिक बनता है, अन्यथा नहीं । भारतीय आर्थिकआदर्श रहा है 'शत हस्त समाहर सहस्र हस्त विकीर्ण,' अर्थात् सौ हाथों से इकट्ठा करो और सहस्र हाथों से बाँट दो । आर्थिक संघर्षों का जन्म तब होता है, जब सम्पदा का वितरण विषम और उपभोग अनियन्त्रित होता है। संग्रह और शोषण की दुष्प्रवृत्तियों के परिणामस्वरूप जब एक ओर मानवता रोटी के टुकड़ों के अभाव की पीड़ा में सिसकती हो और दूसरी ओर ऐशो-आराम की रंगरेलियाँ चलती हों, तब ही वर्ग-संघर्ष का जन्म होता है और सामाजिकशान्ति भंग होती है। 1 270 समाज - जीवन में शान्ति तभी सम्भव है, जब सम्पदा का उपभोग, संग्रह और वितरण नियन्त्रित हो । अपरिग्रह का सिद्धान्त इसी प्रश्न को लेकर हमारे सामने उपस्थित होता है। जहाँ तक सम्पदा के अनियन्त्रित उपभोग और संग्रह का प्रश्न है, जैन-धर्म गृहस्थउपासक के उपभोग - परिभोग- परिसीमन और अनर्थदण्डविरमण - व्रत के द्वारा उन पर नियन्त्रण लगाता है, किन्तु परिग्रह के विषम वितरण के लिए जो परिग्रहपरिसीमन का व्रत प्रस्तुत किया गया है, उसको लेकर कुछ प्रश्न उभरते हैं - प्रथम तो यह कि किसी व्यक्ति के परिग्रह की परिसीमा या मर्यादा क्या होगी ? कितना परिग्रह रखना उचित माना जाएगा और कितना अनुचित । दूसरे, परिग्रह की इस परिसीमा का निर्धारण कौन करेगा- व्यक्ति या समाज | इन प्रश्नों को लेकर डॉ. कमलचन्द सोगाणी ने अपने एक लेख में विचार किया है । 102 जैन - आचार्यों ने इन प्रश्नों को खुला छोड़ दिया था, उन्होंने यह मान लिया था कि व्यक्ति कितना परिग्रह रखे और कितना त्याग दे, यह उसकी आवश्यकता और उसके स्वविवेक पर निर्भर करेगा, क्योंकि प्रत्येक की आवश्यकताएँ भिन्न-भिन्न हैं। एक उद्योगपति की आवश्यकताएँ और एक प्रोफेसर की आवश्यकताएँ निश्चित ही भिन्न-भिन्न होंगी । यही नहीं, एक देश के नागरिक की आवश्यकताएँ दूसरे देश के नागरिक की आवश्यकताओं से भिन्न होंगी । युग के आधार पर भी आवश्यकताएँ बदलती हैं, अतः परिग्रह की सीमा का निर्धारण देश, काल, व्यक्ति और परिस्थिति पर निर्भर होगा। आज अर्थशास्त्री भी इस बात को मानकर चलते हैं कि जो वस्तुएँ एक व्यक्ति के लिए आवश्यक हैं, वे ही दूसरे के लिए विलासिता हो सकती हैं। एक कार डाक्टर के लिए आवश्यक और विश्वविद्यालय के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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