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________________ सामाजिक-नैतिकता के केन्द्रीय-तत्त्व : अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह 269 बिना परिग्रह का पूर्ण त्याग किए भी हो सकता है, किन्तु वह भी इतना तो अवश्य मानती ही है कि अनासक्ति का पूर्ण प्रकटन होने पर व्यक्ति बाह्य-परिग्रह में उलझा हुआ नहीं रहता है, वह उसका परित्याग कर मुनि बन जाता है। दोनों में अन्तर मात्र यही है कि प्रथम के अनुसार, बाह्य-परिग्रह का त्याग होने पर ही कैवल्य की प्राप्ति होती है, तो दूसरे के अनुसार, बाह्यपरिग्रह का त्याग होने के पूर्व भी कैवल्य हो सकता है। यद्यपि कैवल्यलाभ के बाद दोनों के ही अनुसार व्यक्ति सर्वथा अपरिग्रही हो ही जाता है। गीता के अनुसार, अनासक्त-वृत्ति के लिए परिग्रह-त्याग आवश्यक नहीं है। वैदिक-परम्परा के जनक पूर्ण अनासक्त होते हुए भी राजकाज का संचालन करते रहते हैं. जबकि जैन-परम्परा का भरत पूर्ण अनासक्ति के आते ही राजकाज छोड़कर मुनि बन जाता है। अनासक्ति और अपरिग्रह के संदर्भ में जैन-परम्परा विचारपक्ष और आचारपक्ष की एकरूपता पर जितना बल देती है, उतना वैदिक-परम्परा नहीं। वैदिक-परम्परा के अनुसार, अन्तस् में अनासक्ति और बाह्य-जीवन में परिग्रह-दोनों एक साथ सम्भव हैं। इस सम्बन्ध में बौद्ध-धर्म का दृष्टिकोण भी जैन-परम्परा के अधिक निकट है, फिर भी उसे जैन और वैदिक-परम्पराओं के मध्य रखना ही उचित होगा। जैन-धर्म ने जहाँ मुनि-जीवन के लिए परिग्रह के पूर्ण त्याग और गृहस्थ-जीवन में परिग्रह-परिसीमन की अवधारणा प्रस्तुत की, वहाँ बौद्ध-धर्म ने केवल भिक्षु के लिए स्वर्ण-जतरूप परिग्रह-त्याग की अवधारणा प्रस्तुत की। उसमें गृहस्थ के लिए परिग्रह-परिसीमन का प्रश्न नहीं उठाया गया है। गीता और वैदिक-परम्परा यद्यपि संचय और परिग्रह की निन्दा करती है, फिर भी वे परिग्रह-त्याग को अनिवार्य नहीं बताती हैं । अनासक्ति और अपरिग्रह को लेकर तीनों परम्पराओं में यही मूलभूत अन्तर है। वस्तुतः, अनासक्ति का अर्थ है- ममत्व का विसर्जन। समत्व, चाहे वह वैयक्तिक हो या सामाजिक, के सर्जन के लिए ममत्व का विसर्जन आवश्यक है। अनासक्ति और अपरिग्रह में एकही अन्तर है, वह यह कि अपरिग्रह में ममत्व के विसर्जन के साथ ही सम्पदा का विसर्जन भी आवश्यक है। अनासक्ति, समूर्छा या अलोभ का प्रश्न निरा वैयक्तिक है, किन्तु अपरिग्रह का प्रश्न केवल वैयक्तिक नहीं, सामाजिक भी है। परिग्रह (सम्पदा) के अर्जन, संग्रह और विसर्जन, सभी सीधे-सीधे समाज-जीवन को प्रभावित करते हैं । अर्जन सामाजिक-आर्थिक-प्रगतिको प्रभावित करता है, तो संग्रहअर्थ के समवितरणको प्रभावित करता है। मात्र यही नहीं, अर्थ का विसर्जन भी लोककल्याणकारी प्रवृत्तियों को प्रभावित करता है। अतः, परिग्रहके अर्जन, उपभोग, संग्रह और विसर्जन के प्रश्न पूरी तरह सामाजिकप्रश्न हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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