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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
सन्तोषवृत्ति का उदय होना चाहिए, जबकि व्यावहारिक रूप में आसक्ति के प्रहाण के लिए जैन - आचारदर्शन में सुझायी गई परिग्रह की सीमा रेखा का निर्धारण भी आवश्यक है। जब तक हृदय में सन्तोषवृत्ति का उदय नहीं होता, तब तक यह दुष्पूर्य तृष्णा एवं आसक्ति समाप्त नहीं होती । उत्तराध्ययनसूत्र में जो यह कहा गया है कि ' लाभ से लोभ बढ़ता जाता है', उसी का सन्त सुन्दरदासजी ने एक सुन्दर चित्र खींचा है। वे कहते हैं कि
जो दस बीस पचास भये, शत होई हजार तु लाभ मगेगी । कोटि अरब्ब खरब्ब असंख्य, धरापति होने की चाह जगेगी । स्वर्ग पताल को राज करो, तिसना अधिकी अति आग लगेगी। सुन्दर एक संतोष बिना, शठ तेरी तो भूख कबहूँ न भगेगी । पाश्चात्य विचारक महात्मा टालस्टाय ने भी How Much Land Does A Man Require नामक कहानी में एक ऐसा ही सुन्दर चित्र खींचा है। कहानी का सारांश यह है कि कथानायक भूमि की असीम तृष्णा के पीछे अपने जीवन की बाजी भी लगा देता है, किन्तु अन्त में उसके द्वारा उपलब्ध किए गए विस्तृत भू-भाग में केवल उसके शव को दफनाने जितना भू-भाग ही उसके उपयोग में आता है।
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वस्तुतः, तृष्णा की समाप्ति का एक ही उपाय है - हृदय में सन्तोषवृत्ति या त्यागभावना का उदय । महाभारत के आदिपर्व में ययाति ने कहा है कि जिस प्रकार अग्नि में घृत डालने से अनि शान्त नहीं होती, उसी प्रकार कामभोगों से तृष्णा शान्त नहीं होती, वरन् बढ़ती ही जाती है। तृष्णा की अग्नि केवल त्याग के द्वारा ही शान्त हो सकती है, अतः मनुष्य को तृष्णा का त्याग कर सच्चे सुख की शोध करना चाहिए और वह सुख उसे संतोषमय जीवन जीने से ही उपलब्ध हो सकता है।
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अनासक्ति के प्रश्न पर तुलनात्मक दृष्टि से विचार
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जैन, बौद्ध और वैदिक परम्पराएँ अनासक्ति के सैद्धान्तिक पक्ष पर समान रूप से बल देती हैं, किन्तु उसके व्यावहारिक- फलित अपरिग्रह के सिद्धान्त को लेकर उनमें मतभेद भी हैं । जहाँ जैन-दर्शन के अनुसार अनासक्त होने के लिए अपरिग्रही होना आवश्यक है, वहाँ गीता और बौद्ध दर्शन यह मानते हैं कि अनासक्त होने के लिए अपरिग्रही होना आवश्यक नहीं है। जैन-दर्शन के अनुसार अनासक्त जीवन-दृष्टि का प्रमाण यही है कि व्यक्ति का बाह्य-जीवन सर्वथा अपरिग्रही हो । परिग्रह का होना स्पष्टतया इस बात का सूचक है कि व्यक्ति में अभी अनासक्ति का पूर्ण विकास नहीं हुआ है। यही कारण है कि जैनधर्म की दिगम्बर- परम्परा मुक्ति के लिए बाह्य परिग्रह का पूर्णतया त्याग आवश्यक मानती है । यद्यपि श्वेताम्बर - परम्परा यह मानती है कि पूर्ण अनासक्त- -वृत्ति का उदय तो
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