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________________ सामाजिक-नैतिकता के केन्द्रीय-तत्त्व : अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह 261 बन्धन तो सोना, चाँदी, पुत्र, स्त्री आदि में रही हुई आसक्ति ही है। सुत्तनिपात में भी बुद्ध ने कहा है कि आसक्ति ही बन्धन है, जो भी दुःख होता है, वह सब तृष्णा के कारण ही होता है। आसक्त मनुष्य आसक्ति के कारण नाना प्रकार के दुःख उठाते हैं । आसक्ति का क्षय ही दुःखों का क्षय है। जो व्यक्ति इस तृष्णा को वश में कर लेता है, उसके दुःख उसी प्रकार समाप्त हो जाते हैं, जैसे कमलपत्र पर रहा हुआ जल-बिन्दु शीघ्र ही समाप्त हो जाता है। तृष्णा से ही शोक और भय उत्पन्न होते हैं। तृष्णा-मुक्त मनुष्य को न तो भय होता है औरन शोक। इस प्रकार, बुद्ध की दृष्टि में आसक्ति ही वास्तविक दुःख है और अनासक्ति ही सच्चा सुख है। बुद्ध ने जिस अनात्मवाद का प्रतिपादन किया, उसके पीछे भी उनकी मूल दृष्टि आसक्ति-नाश ही थी। बुद्ध की दृष्टि में आसक्ति, चाहे वह पदार्थों की हो, चाहे वह किसीअतीन्द्रिय आत्मा के अस्तित्व की हो, बन्धन ही है। अस्तित्व की चाह तृष्णा ही है। मुक्ति तो विरागता या अनासक्ति में ही प्रतिफलित होती है।” तृष्णा का प्रहाण होना ही निर्वाण है। बुद्ध की दृष्टि में परिग्रह का मूल इच्छा (आसक्ति) है, अतः बुद्ध की दृष्टि में भी अनासक्ति की वृत्ति के उदय के लिए परिग्रह का विसर्जन आवश्यक है। गीता में अनासक्ति- गीता के आचारदर्शन का भी केन्द्रीय-तत्त्व अनासक्ति है। महात्मा गांधी ने तो गीताको अनासक्ति-योग' ही कहा है। गीताकार ने भी यह स्पष्ट किया है कि आसक्ति का तत्त्व ही व्यक्ति को संग्रह और भोगवासना के लिए प्रेरित करता है। कहा गया है कि आसक्ति के बन्धन में बँधा हुआ व्यक्ति कामभोग की पूर्ति के लिए अन्यायपूर्वक अर्थ-संग्रह करता है। इस प्रकार, गीताकार की स्पष्ट मान्यता है कि आर्थिक-क्षेत्र में अपहरण, शोषण और संग्रह की जो बुराइयाँ पनपती हैं, वे सब मूलतः आसक्ति से प्रत्युत्पन्न हैं। गीता के अनुसार, आसक्ति और लोभ नरक के कारण हैं। कामभोगों में आसक्त मनुष्य ही नरक और अशुभ योनियों में जन्म लेता है। 100 सम्पूर्ण जगत् इसी आसक्ति के पाश में बँधा हुआ है और इच्छा और द्वेष से सम्मोहित होकर परिभ्रमण करता रहता है। वस्तुतः, आसक्ति के कारण वैयक्तिक और सामाजिक-जीवन नारकीय बन जाता है । गीता के नैतिक-दर्शन का सारा जोर फलासक्ति को समाप्त करने पर है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! तू कर्मों के फल में रही हुई आसक्ति का त्याग कर निष्काम-भाव से कर्म कर। 101 गीताकार ने आसक्ति के प्रहाण का जो उपाय बताया है, वह यह है कि सभी कुछ भगवान् के चरणों में समर्पित कर और कर्तृत्व-भाव से मुक्त होकर जीवन जीना चाहिए। __इस प्रकार, हम देखते हैं कि जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शन अनासक्ति के उदय और आसक्ति के प्रहाणको अपने नैतिक-दर्शन का महत्वपूर्ण अंगमानते हैं । आसक्ति के प्रहाण के दो ही उपाय हैं । आध्यात्मिक-रूप में आसक्ति के प्रहाण के लिए हृदय में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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