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सामाजिक-नैतिकता के केन्द्रीय-तत्त्व : अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह
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केम्पस में रहने वाले प्रोफेसर के लिए विलासिता की वस्तु होगी। अतः, परिग्रह-मर्यादा का कोई सार्वभौम मानदण्ड सम्भव नहीं है। तो, क्या इस प्रश्न को व्यक्ति के स्वविवेक पर खुला छोड़ दिया जाए? यदि व्यक्ति विवेकशील और संयमी है, तब तो निश्चय ही इस सम्बन्ध में निर्णय लेने का अधिकार उसे है, किन्तु स्थिति इससे भिन्न भी है। यदि व्यक्ति स्वार्थी और वासनाप्रधान है, तो निश्चय ही निर्णय का यह अधिकार व्यक्ति के हाथ से छीनकर समाज के हाथों में सौंपना होगा, जैसा कि आज समाजवादी-व्यवस्था मानती है । यद्यपि इस स्थिति में चाहे सम्पदा का समवितरण एवं सामाजिक-शान्ति सम्भव भी हो, किन्तुमानसिकशान्ति सम्भव नहीं होगी। वह तो तभी सम्भव होगी, जब व्यक्ति की तृष्णाशान्त होगी और जीवन में अनासक्त-दृष्टि का उदय होगा। जब अपरिग्रह अनासक्ति से फलित होगा, तभी व्यक्ति और समाज में सच्ची शान्ति आएगी।
सन्दर्भ ग्रन्थ - 1. प्रश्नव्याकरणसूत्र, 2/1/21/22 2. आचारांग, 1/4/1/127 3. सूत्रकृतांग, 1/4/10 4. दशवैकालिक, 6/9 5. भक्तपरिज्ञा, 91 6. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 42 7. भगवती-आराधना, 790 8. चतुःशतक, 298 9. धम्मपद, 270 10. धम्मपद, 201 11. अंगुत्तरनिकाय, 3/153 12. गीता 10/5-7, 17/14 13. महाभारत, शान्ति पर्व, 245/19 14. वही, 109/12 15. गीता (शांकर भाष्य), 2/18 16. गीता, 6/32 17. दिभगवद्गीता एण्ड चेजिंग वर्ल्ड, पृ. 122 18. भगवद्गीता (रा.) पृ.74/75
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