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________________ सामाजिक-नैतिकता के केन्द्रीय-तत्त्व : अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह 263 वह राजनीतिक-क्षेत्र में संसदीय-प्रजातन्त्र का समर्थक भी है, अतः आज अनेकान्त का व्यावहारिक-क्षेत्र में उपयोग करने का दायित्व भारतीय राजनीतिज्ञों पर है। सामाजिक एवं पारिवारिक-सहिष्णुता कौटुम्बिक-क्षेत्र में इस पद्धति का उपयोग परस्पर कुटुम्बों में और कुटुम्ब के सदस्यों में संघर्ष को टालकर शान्तिपूर्ण वातावरण का निर्माण करेगा। सामान्यतया, पारिवारिक जीवन में संघर्ष के दो केन्द्र होते हैं - पिता-पुत्र तथा सास-बहू। इन दोनों के विवादों में मूल कारण दोनों का दृष्टि-भेद है। पिता जिस परिवेश में पला है, उन्हीं संस्कारों के आधार पर पुत्र का जीवन ढालना चाहता है। जिस मान्यता को स्वयं मानकर बैठा है, उन्हीं मान्यताओं को दूसरे से मनवाना चाहता है। पिता की दृष्टि अनुभवप्रधान होती है, जबकि पुत्र की दृष्टि तर्कप्रधान। एक प्राचीन संस्कारों से ग्रस्त होता है, तो दूसरा उन्हें समाप्त कर देना चाहता है। यही स्थिति सास-बहू में होती है। सास यह अपेक्षा करती है कि बहु ऐसा जीवन जिए, जैसा उसने स्वयं बहू के रूप में जिया था, जबकि बहू अपने युग के अनुरूप और अपने मातृपक्ष के संस्कारों से प्रभावित जीवन जीना चाहती है। मात्र इतना ही नहीं, उसकी अपेक्षा यह भी होती है कि वह उतना ही स्वतन्त्र जीवन जीए, जैसा वह अपने मातापिता के पास जीती थी। इसके विपरीत, श्वसुर-पक्ष उससे एक अनुशासित जीवन की अपेक्षा करता है। यही सब विवाद के कारण बनते हैं । इसमें जब तक सहिष्णु-दृष्टि और दूसरे की स्थिति को समझने का प्रयास नहीं किया जाता, तब तक संघर्ष समाप्त नहीं हो सकता। वस्तुतः, इसके मूल में जो दृष्टि-भेद है, उसे अनेकान्त-पद्धति से सम्यक् प्रकार से जाना जा सकता है। वास्तविकता यह है कि हम जब दूसरे के सम्बन्ध में कोई विचार करें,कोई निर्णय लें, तो हमें स्वयं अपने को उस स्थिति में खड़ा कर सोचना चाहिए। दूसरे की भूमिका में स्वयं को खड़ा करके ही उसे सम्यक् प्रकार से जाना जा सकता है। पिता पुत्र से जिस बात की अपेक्षा करता है, उसके पहले अपने को पुत्र की भूमिका में खड़ा कर विचार कर ले। अधिकारी कर्मचारी से जिस ढंग से काम लेना चाहता है, उसके पहले स्वयं को उस स्थिति में खड़ा करे, फिर निर्णय ले। यही एक दृष्टि है, जिसके द्वारा एक सहिष्णुमानस का निर्माण किया जा सकता है और मानव जाति को वैचारिक-संघर्षों से बचाया जा सकता है। ___ अनाग्रह की अवधारणा के फलित - सत् अनन्त पहलुओं से युक्त है तथा मानवीय-ज्ञान के साधन सीमित एवं सापेक्ष हैं, अतः सामान्य व्यक्ति का ज्ञान सीमित (आंशिक) और सापेक्ष होता है। दूसरे, आग्रह जो वस्तुतः वैचारिक-राग ही है, सत्य को रंगीन बना देता है। रागात्मिका-बुद्धि भी सत्य को विकृत कर देती है। परिणामस्वरूप, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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