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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
सामान्य व्यक्ति को जो भी ज्ञान होता है, वह अपूर्ण तो होता ही है, अशुद्ध भी होता है, अतः सत्यान्वेषण एवं विचारशुद्धि की आवश्यक शर्ते निम्न हैं
1. सम्पूर्ण सत्य का ज्ञान सामान्य मानव के लिए सम्भव नहीं है. सत्य के अनेक पहलू हमारे लिए आवृत्त बने रहते हैं, अतः दूसरों के विचार एवं ज्ञान में भी सत्यता सम्भव है, यह बात स्वीकार करनी होगी।
2. सत्यान्वेषण आग्रहबुद्धि के द्वारा सम्भव नहीं है। अनाग्रही-दृष्टि ही सत्य को प्रदान कर सकती है।
3. राग-द्वेषजन्य संस्कारों से ऊपर उठकर 'मेरा सो सच्चा' के स्थान पर 'सच्चा सो मेरा'-यह दृष्टि रखना चाहिए। सत्य चाहे अपने पास हो याविरोधी के पास, उसे स्वीकार करने के लिए सदैव तैयार रहना चाहिए।
4. जब तक हम राग-द्वेष के संस्कारों से अपने को ऊपर नहीं उठा सकें और पूर्णता को नहीं प्राप्त कर सकें, तब तक केवल सत्य के प्रति जिज्ञासा रखना चाहिए। सत्य अपना या पराया नहीं होता है।
5. अपने विचार-पक्ष के प्रति भी विपक्ष के समान तीव्र समालोचक-दृष्टि रखना चाहिए।
6. विपक्ष के सत्य को उसी के दृष्टिकोण के आधार पर समझने का प्रयास करना चाहिए।
7. अनुभव या ज्ञान की वृद्धि के साथ यदि नए सत्यों का प्रकटन हो तथा पूर्वगृहीत विचार असत्य प्रतीत हों, तो आग्रहबुद्धि का त्याग कर नए विचारों क । स्वीकार करना चाहिए और पुरानी मान्यताओं को तदनुरूप संशोधित करना चाहिए।
8. विरोध की स्थिति में प्रज्ञापूर्वक समन्वय के सूत्र खोजने का प्रयास करना चाहिए।
9. दूसरों के विचारों के प्रति सहिष्णु दृष्टिकोण रखना चाहिए, क्योंकि उनके विचारों में भी सत्यता की सम्भावना निहित है।
अनासक्ति (अपरिग्रह) अहिंसा और अनाग्रह के बाद जैन-आचारदर्शन का तीसरा प्रमुख सिद्धान्त अनासक्ति है। अहिंसा, अनाग्रह और अनासक्ति-इन तीन तत्त्वों के आधार पर ही जैन-आचाग्दशन का भव्य महल खड़ा है। यही अनासक्ति सामाजिक-नैतिकता के क्षेत्र में अपरिग्रह बन जाती है। जैन-धर्म में अनासक्ति
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