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सामाजिक-नैतिकता के केन्द्रीय-तत्त्व : अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह
रागात्मक
विस्फोट जैन-धर्म में होना चाहिए था, वह न हो सका। अहिंसा और अनासक्ति की जो सूक्ष्म व्याख्याएँ की गईं, वे ही इस मार्ग में सबसे बाधक बन गईं। असंयती की सेवा को और 5- सेवा को अनैतिक माना गया। यही कारण था कि जहाँ हम बौद्ध भिक्षुओं और ईसाई पादरियों को सेवा के प्रति जितना तत्पर पाते हैं, उतना जैन भिक्षु संघ को नहीं । जैन- भिक्षु अपने सहवर्गी के अतिरिक्त अन्य की सेवा नहीं कर सकता, जबकि बौद्ध भिक्षु प्राचीनकाल से ही पीड़ित एवं दुःखित वर्ग की सेवा करता रहा है।
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हिन्दू-परम्परा में सेवा, अतिथिसत्कार, देवऋण, पितृऋण, गुरुऋण तथा लोकसंग्रह की अवधारणाएँ अहिंसा के विधायक पक्ष को स्पष्ट कर देती हैं। तुलनात्मक दृष्टि से हमें यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होना चाहिए कि सैद्धान्तिक रूप में जैन मुनिवर्ग की अहिंसा निषेधात्मक अधिक रही, किन्तु जहाँ तक व्यावहारिक जीवन का प्रश्न है, जैन- गृहस्थ समाज एवं लोकसेवा के कार्यों से किसी भी युग में पीछे नहीं रहा है। आज भी भारत में जैन-समाज द्वारा जितनी लोककल्याणकारी प्रवृत्तियाँ चल रही हैं, वे आनुपातिकदृष्टि से किसी भी अन्य समाज से कम नहीं हैं। यही उसकी अहिंसा की विधायक -दृष्टि का प्रमाण है ।
हिंसा के अल्प - बहुत्व का विचार - हिंसा और अहिंसा का विचार हमारे सामने एक समस्या यह भी प्रस्तुत करता है कि किसी विशेष परिस्थिति में जब एक की रक्षा के लिए दूसरे की हिंसा अनिवार्य हो, अथवा दो अनिवार्य हिंसाओं में से एक का चयन आवश्यक हो, तो मनुष्य क्या करे ? इस प्रश्न को लेकर तेरापंथी जैन-सम्प्रदाय का जैनों के दूसरे सम्प्रदायों से मतभेद है। उनका मानना है कि ऐसी स्थिति में मनुष्य को तटस्थ रहना चाहिए। दूसरे सम्प्रदाय ऐसी स्थिति में हिंसा के अल्प - बहुत्व का विचार करते हैं। मान लीजिए, एक आदमी प्यासा है, यदि उसे पानी नहीं पिलाया जाए, तो उसका प्राणान्त हो जाएगा; दूसरी ओर, उसे पानी पिलाने में पानी के जीवों (अपकाय - जीवों) की हिंसा होती है। इसी प्रकार, एक व्यक्ति के शरीर में कीड़े पड़ गए हैं, अब यदि डाक्टर उसे बचाता है, तो कीड़ों की हिंसा होती है और कीड़ों को बचाता है, तो आदमी की मृत्यु होती है, अथवा प्रसूति की अवस्था में माँ और शिशु में से किसी एक के जीवन की ही रक्षा की जा सकती हो, तो ऐसी स्थितियों में क्या किया जाए ? अहिंसा का सिद्धान्त ऐसी स्थिति में क्या निर्देश करता है ? पंडित सुखलालजी ने यह माना है कि वध्य जीवों का कद, उनकी संख्या तथा उनकी इन्द्रिय आदि के तारतम्य पर हिंसा के दोष का तारतम्य अवलम्बित नहीं है; किन्तु हिंसक के परिणाम या वृत्ति की तीव्रता - मंदता, सज्ञानता - अज्ञानता या बलप्रयोग की न्यूनाधिकता पर अवलंबित है ।" यद्यपि हिंसा के दोष की तीव्रता या मंदता हिंसक की
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