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________________ 250 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन जीवन-निर्वाह की दृष्टि से अपवादों का विचार करती है, जबकि वैदिक-परम्परा सामान्य गृहस्थ के जीवन के निर्वाह की दृष्टि से भी अपवाद का विचार करती है। अहिंसाका विधायक रूप-जैन-धर्म निवृत्तानुलक्षी होने से उसमें अहिंसा का निषेधात्मक-स्वरूप ही अधिक मिलता है। श्वेताम्बर-तेरापंथी जैन-समाज तो केवल अहिंसा के निषेध रूप को ही मानता है। अहिंसा के विधायक-पक्ष में उसकी आस्था नहीं है। पूर्वकाल के जैन सन्त अहिंसा के इस निषेध-पक्ष को ही अधिक प्रस्तुत करते थे, इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता, फिर भी जैन-सूत्रों में अहिंसा का विधायक-पक्ष मिलता है। अहिंसा का विधायक-पक्ष प्राणियों के हित-साधन में ही निहित है। जैन-धर्म की अहिंसा इस रूप में विधायक है। आचारांगसूत्र में तीर्थस्थापना का उद्देश्य समस्त जगत् के प्राणियों का कल्याण बताया गया है। इस प्रकार, अहिंसा में जीवों के कल्याण-साधन का तथ्य निहित है, जो विधायक-अहिंसा का मूल है, इतना ही नहीं, आचारांगसूत्र में कहा गया है कि समस्त तीर्थंकरों ने अहिंसा-धर्म' का प्रवर्तन समस्त लोक के खेद को जानकर ही किया है। 'खेयन्नेहि' शब्द के मूल में अहिंसा का विधायक रूप स्पष्ट बोल रहा है। इसमें अहिंसा का उद्देश्य मनुष्य का अपना कल्याण न होकर लोक-कल्याण ही स्पष्ट होता है। इतना ही नहीं, तीर्थंकर अरिष्टनेमि का विवाहप्रसंग तथा शान्तिनाथ के पूर्व-भव में कबूतर की रक्षा का प्रसंग , ऐसे अनेक प्रसंग जैन कथा-साहित्य में हैं, जिनमें अहिंसा का विधायक-स्वरूप स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। जैन संघों द्वारा संचालित औषधालय, गोशालाएँ, पांजरापोल (पशु-रक्षा गृह) आदि संस्थाएँ भी इस बात के प्रमाण हैं कि जैनविचारक अहिंसा के विधायक-पक्षको भूले नहीं हैं। पुण्य के नौ भेदों में अन्नदान, वस्त्रदान, स्थान (आश्रय) दान आदि इसी विधायक-पक्ष की पुष्टि करते हैं। विधायक-पक्ष का एक और प्रमाण जैन-तीर्थंकरों की गृहस्थावस्था में मिलता है। सभी तीर्थंकर संन्यास लेने के पूर्व एक वर्ष तक प्रतिदिन स्वर्णमुद्राएँ याचकों को दान करते हैं। इस प्रकार, जैन-धर्म अहिंसा के दोनों पक्ष स्वीकार करता है। बौद्ध एवं वैदिक-परम्परा में अहिंसा का विधायक-पक्ष यह निस्सन्देह सत्य है कि बौद्ध और वैदिक-परम्पराओं में अहिंसा को अधिक विधायक-स्वरूप प्रदान किया। साधना के साथ सेवा का समन्वय करने में भारतीय-धर्मों में विशेष रूप से उनकी महायान-शाखा अग्रणी रही है। यद्यपि जैन-धर्म में भी ग्लान, वृद्ध, रोगी, शैक्ष्य आदि की सेवा का निर्देश है, मात्र यही नहीं, मुनियों की सेवा को गृहस्थ-धर्म का अनिवार्य अंग मान लिया गया है, फिर भी मानवता के लिए सेवा और करुणा का जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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