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सामाजिक नैतिकता के केन्द्रीय-तत्त्व : अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह
में शिथिल करती है, जिनमें मात्र संयममूलक मुनि-जीवन का अनुरक्षण हो सके, जबकि
वैदिक परम्परा में अहिंसा के पालन में उन सभी स्थितियों में शिथिलता की गई है, जिनमें सभी आश्रम और सभी प्रकार के लोगों के जीवन जीने और अपने कर्त्तव्यों के पालन का अनुरक्षण हो सके।
(2) यद्यपि जैन आचार्यों ने संयममूलक जीवन के अनुरक्षण के लिए की गई हिंसा को हिंसा नहीं माना है, तथापि परम्परा के आग्रही अनेक जैन आचार्यों ने उस हिंसा को हिंसा के रूप में स्वीकार करते हुए केवल अपवाद रूप में उसका सेवन करने की छूट दी और उसके प्रायश्चित्त का विधान भी किया। उनकी दृष्टि में हिंसा, चाहे वह किसी भी स्थिति में हो, हिंसा है । यही कारण है कि आज भी जैन - सम्प्रदायों में संयम एवं शरीर-रक्षण के निमित्त भिक्षाचर्या आदि दैनिक - व्यवहार में होने वाली सूक्ष्म हिंसा के लिए भी प्रायश्चित्त का विधान है।
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(3) वैदिक परम्परा में हिंसा धार्मिक अनुष्ठानों का एक अंग मान ली गई और उनमें होने वाली हिंसा हिंसा नहीं मानी गई । यद्यपि जैन - परम्परा में कुछ आचार्यों ने धार्मिक अनुष्ठानों, मन्दिर निर्माण आदि कार्यों में होनेवाली हिंसा का समर्थन अल्पहिंसा और बहु - निर्जरा के नाम पर किया, लेकिन जैन- परम्परा में सदैव ही ऐसी मान्यता का विरोध किया जाता रहा और जिसकी तीव्र प्रतिक्रियाओं के रूप में दिगम्बर - सम्प्रदाय में तेरापंथ और तारणपंथ तथा श्वेताम्बर - सम्प्रदाय में लोकगच्छ, स्थानकवासी एवं तेरापंथ (श्वेताम्बर - आम्नाय) आदि अवान्तर सम्प्रदायों का जन्म हुआ, जिन्होंने धर्म के नाम पर होने वाली हिंसा का तीव्र विरोध किया।
(4) वैदिक - परम्परा में जिस धार्मिक - हिंसा को हिंसा नहीं माना गया, उसका बहुत-कुछ सम्बन्ध पशुओं की हिंसा से है, जबकि जैन- परम्परा में मन्दिर निर्माण आदि के निमित्त से भी जिस हिंसा का समर्थन किया गया, उसका सम्बन्ध मात्र एकेन्द्रिय अथवा स्थावर जीवों से है।
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(5) जैन - परम्परा में हिंसा के किसी भी रूप को अपवाद मानकर ही स्वीकार किया गया, जबकि वैदिक परम्परा में हिंसा आचरण का नियम ही बन गई । जीवन के सामान्य कर्त्तव्यों, जैसे-यज्ञ, श्राद्ध, देव, गुरु, अतिथि-पूजन आदि के निमित्त से भी हिंसा का विधान किया गया है, यद्यपि परवर्ती वैष्णव सम्प्रदायों ने इसका विरोध किया ।
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(6) प्राचीन जैन मूल आगमों में संयमी जीवन के अनुरक्षण के लिए ही मात्र अत्यल्प स्थावर - हिंसा का समर्थन अपवाद-रूप में उपलब्ध है, जबकि वैदिक - परम्परा में हिंसा का समर्थन सांसारिक जीवन की पूर्ति तक के लिए किया गया है। जैन - परम्परा भिक्षु के
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