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________________ 248 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन स्वीकार करते थे, वहाँ निर्ग्रन्थ-परम्परा में औद्देशिक-आहार भी अग्राह्य माना गया था, क्योंकि उसमें नैमित्तिक-हिंसा के दोष की सम्भावना थी। यद्यपि पिटकग्रन्थों में बौद्ध-भिक्षु के लिए ऐसा भोजन निषिद्ध माना गया है, जिसमें उसके लिए प्राणीहिंसा की गई हो और वह इस बात को जानता हो, या उसने ऐसा सुना हो, फिर भी यह अतिशयोक्ति नहीं है कि अहिंसा को जितना व्यापक अर्थ जैन-परम्परा में दिया गया है, उतना अन्यत्र अनुपलब्ध ही जैन और बौद्ध-परम्पराओं में अहिंसा सम्बन्धी जो खण्डन-मण्डन हुआ, उसके पीछे सैद्धान्तिक-मतभेद न होकर उसकी व्यावहारिकता का प्रश्न ही प्रमुख रहा है। पं. सुखलालजी लिखते हैं, दोनों की अहिंसा सम्बन्धी व्याख्या में कोई तात्त्विक-मतभेद नहीं जैन-परम्परा ने नवकोटिक अहिंसा की सूक्ष्म व्यवस्था को अमल में लाने के लिए जो बाह्य-प्रवृत्तिको विशेष नियन्त्रित किया, वह बौद्ध-परम्परा ने नहीं किया। जीवन सम्बन्धी बाह्य-प्रवृत्तियों के अति नियन्त्रण और मध्यवर्गीय-शैथिल्य के प्रबलभेदमें से ही बौद्ध और जैन-परम्पराएँ आपस में खण्डन–मण्डन में प्रवृत्त हुई। जब हम दोनों परम्पराओं के खण्डनमण्डनको तटस्थ भाव से देखते हैं, तब निःसंकोच कहना पड़ता है कि बहुधा दोनों ने एकदूसरे को गलत रूप से ही समझा है। इसका एक उदाहरण मज्झिमनिकाय का उपालिसुत्त और दूसरा सूत्रकृतांग का है। यद्यपि जैन-परम्परा ने नवकोटिपूर्ण अहिंसा के पालन पर बल दिया, लेकिन नवकोटिक अहिंसा के पालन में जब साधु-जीवन के व्यवहारों का सम्पादन एवं संयमी जीवन का रक्षण भी असम्भव प्रतीत हुआ, तो यह स्वीकार किया गया कि शास्त्रविहित प्रवृत्तियों में हिंसा-दोष का अभाव होता है। इसी प्रकार, मन्दिर निर्माण, प्रतिमापूजन, तीर्थयात्रा आदि के प्रसंग पर होनेवाली हिंसा विहित मान ली गई। परिणाम यह हुआ कि वैदिक-हिंसा हिंसा नही है. इस सिद्धान्त के प्रति की गई उनकी आलोचना स्वयं निर्बल रह गई। वैदिक-पक्ष की ओर से कहा जाने लगा कि यदि तुम कहते हो कि शास्त्रविहित हिंसा हिंसा नहीं है, तो फिर हमारी आलोचना कैसे कर सकते हो? 57 इस प्रकार, आलोचनाओं और प्रत्यालोचनाओं का एक विशाल साहित्य निर्मित हो गया, जिसका समुचित मूल्यांकन यहाँ सम्भव नहीं है, फिर भी इतना तो कहा जा सकता है कि इस समग्र वाद-विवाद में जैन, बौद्ध और वैदिक-परम्पराओं में मौलिक रूपसे सैद्धान्तिक-मतभेद अल्प ही हैं। प्रमुख प्रश्न व्यवहार का है। व्यावहारिक-दृष्टि से जैन और वैदिक-परम्पराओं में निम्न अन्तर खोजा जा सकता है (1) जैन-परम्परा पूर्ण अहिंसा के पालन सम्बन्धी विचार को केवल उन्हीं स्थितियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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