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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
मानसिक-वृत्ति पर निर्भर है, तथापि इस आधार पर प्रश्नों का ठीक समाधान नहीं मिलता। इन प्रश्नों के हल के लिए हमें हिंसा के अल्प-बहुत्व का कोई बाह्य-आधार ढूँढना होगा।
जैन-परम्परा में परम्परागत रूप से यह विचार स्वीकृत रहा है कि ऐसी स्थितियों में हमें प्राण-शक्तियों या इन्द्रियों की संख्या एवं आध्यात्मिक-विकास के आधार पर ही हिंसा के अल्प-बहुत्व का निर्णय करना चाहिए। इस सारी विवक्षा में जीवों की संख्या को सदैव ही गौण माना गया है। महत्व जीवों की संख्या का नहीं, उनकी ऐन्द्रिक एवं आध्यात्मिक विकास-क्षमता का है। सूत्रकृतांग में हस्तितापसों का वर्णन है, जो एक हाथी की हत्या करके उसके माँस से एक वर्ष तक निर्वाह करते थे। उनका दृष्टिकोण यह था कि अनेक स्थावर जीवों की हिंसा की अपेक्षा एक त्रस जीव की हिंसा से निर्वाह कर लेना अल्प पाप है, लेकिन विचारकों ने इस धारणा को अनुचित ही माना।
भगवतीसूत्र में स्पष्ट ही कहा गया है कि यद्यपि सभी जीवों में आत्माएँ समान हैं, तथापि प्राणियों की ऐन्द्रिक-क्षमता एवं आध्यात्मिक-विकास के आधार पर हिंसादोष की तीव्रता आधारित होती है। एक त्रस जीव की हिंसा करता हुआ मनुष्य तत्सम्बन्धीत अनेक जीवों की हिंसा करता है। 64 एक अहिंसक-ऋषि की हत्या करने वाला एक प्रकार से अनन्त जीवों की हिंसा करने वाला होता है। इस प्रकार, यह सिद्ध होता है कि स्थावर जीवों की अपेक्षा त्रसजीवों की और त्रस जीवों में पंचेन्द्रिय की, पंचेन्द्रियों में भी मनुष्य की
और मनुष्यों में भी ऋषि की हिंसा अधिक निकृष्ट है । इतना ही नहीं, बस जीव की हिंसा करने वाले को अनेक जीवों की हिंसा का और ऋषि की हिंसा करने वाले को अनन्त जीवों की हिंसा का करनेवाला बताकर शास्त्रकार ने यह स्पष्ट निर्देश किया है कि हिंसा-अहिंसा के विचार में संख्या का प्रश्न अधिक महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है-प्राणी की ऐन्द्रिक एवं आध्यात्मिक विकास-क्षमता। ___जब अपरिहार्य बन गई दो हिंसाओं में किसी को चुनना अनिवार्य हो, तो हमें अल्प-हिंसा को चुनना होगा, किन्तु कौन-सी हिंसा अल्प-हिंसा होगी, यह निर्णय देश, काल, परिस्थिति आदि अनेक बातों पर निर्भर करेगा। यहाँ हमें जीवन की मूल्यवत्ता को भी आँकना होगा। जीवन की यह मूल्यवत्ता दो बातों पर निर्भर करती है - (1) प्राणी का ऐन्द्रिक एवं आध्यात्मिक-विकास और (2) उसकी सामाजिक-उपयोगिता। सामान्यतया, मनुष्य का जीवन अधिक मूल्यवान् है और मनुष्यों में भी एक सन्त का, किन्तु किसी परिस्थिति में किसी मनुष्य की अपेक्षा किसी पशु का जीवन भी अधिक मूल्यवान् हो सकता है। संभवतः, हिंसा-अहिंसा के विवेक में जीवन की मूल्यवत्ता का यह विचार हमारी दृष्टि में उपेक्षित ही रहा, यही कारण था कि हम चींटियों के प्रति तो संवेदनशील बन सके, किन्तु
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