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________________ 246 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन नहीं देखी जाती है। इस प्रकार, उसमें अहिंसा की अवधारणा अधिक व्यापक बनी है। उसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमें सेवा तथा सहयोग के मूल्यों के माध्यम से अहिंसा को एक विधायक-दिशा भी प्रदान की है, फिर भी सामान्य जीवन में पशुवध और मांसाहार के निषेध की बात वहाँ नहीं उठाई गई है, अतः उसकी अहिंसा की अवधारणा मानवता तक ही सीमित मानी जा सकती है, वह भी समस्त प्राणी-जगत् की पीड़ा के प्रति संवेदनशील नहीं बन सका। भारतीय-चिन्तन में अहिंसा का अर्थ - विस्तार चाहे वेदों में 'पुमान् पुमांसं विश्वतः' (ऋग्वेद, 6.75.14) के रूप में एक-दूसरे की सुरक्षा की बात कही गई हो, अथवा 'मित्रास्याहं चक्षुषा सर्वाणि भूतानि समोक्षे' (यजुर्वेद, 36.18) के रूप में सर्वप्राणियों के प्रति मित्र-भाव की कामना की गई हो, किंतु वेदों की यह अहिंसक-चेतना भी मानवजाति तक ही सीमित रही है। मात्र इतना ही नहीं, वेदों में अनेक ऐसे प्रसंग हैं, जिसमें शत्रु-वर्ग के विनाश के लिए प्रार्थनाएँ भी की गई हैं। यज्ञों में पशुबलि स्वीकृत रही, वेद-विहित हिंसा को हिंसा की कोटि में नहीं माना गया। इस प्रकार, उनमें धर्म के नाम पर की जाने वाली हिंसा को समर्थन ही दिया गया। वेदों में अहिंसा की अवधारणा का अर्थविस्तार उतना ही है, जितना की यहूदी और इस्लाम-धर्म में । वैदिक-धर्म की पूर्व-परम्परा में भी अहिंसा का सम्बन्ध मानव-जाति तक ही सीमित रहा। 'मा हिंस्यात् सर्वभूतानि' का उद्घोष तो हुआ, लेकिन व्यावहारिक-जीवन में यह मानवप्राणी से अधिक ऊपर नहीं उठ सका। इतना ही नहीं, एक ओर, पूर्ण अहिंसा के बौद्धिकआदर्श की बात और दूसरी ओर, मांसाहार की लालसा एवं रूढ़ परम्पराओं के प्रति अंध आस्था ने अपवाद का एक नया आयाम खड़ा किया और कहा गया कि 'वेदविहित हिंसा हिंसा नहीं है।'53 श्रमण-परम्पराएँ इस प्राणी-जगत् तक आगे आईं और उन्होंने अहिंसा की व्यावहारिकता का विकास समग्र प्राणी-जगत् तक करने का प्रयास किया और इसी आधार पर वैदिक-हिंसा की खुलकर आलोचना की गई। कहा गया कि यदि यूप के छेदन करने से और पशुओं की हत्या करने से और खून का कीचड़ मचाने से ही स्वर्ग मिलता हो, तो फिर नर्क में कैसे जाया जाएगा। यदि हनन किया गया पशु स्वर्ग को जाता है, तो फिर यजमान अपने माता-पिता की बलि ही क्यों नहीं दे देता? अहिंसक-चेतना का सर्वाधिक विकास हुआ है श्रमण-परम्परा में। इसका मुख्य कारण यह था कि गृहस्थ-जीवन में रहकर पूर्ण अहिंसा के आदर्श को साकार कर पाना सम्भव नहीं था। जीवन-यापन, अर्थात् आहार, सुरक्षा आदि के लिए हिंसा आवश्यक तो है ही, अतः उन सभी धर्म-परम्पराओं में, जो मूलतः निवृत्तिपरक या संन्यासमार्गीय नहीं थीं, अहिंसा को उतना अर्थविस्तार प्राप्त नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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