________________
सामाजिक-नैतिकता के केन्द्रीय-तत्त्व : अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह
245
संवेदनशील बना, उसने अहिंसा के प्रत्यय को उतना ही अधिक व्यापक अर्थ प्रदान किया। अहिंसा के अर्थका यह विस्तार भी तीनों रूपों में हुआ है- एक ओर अहिंसा के अर्थको व्यापकता दी गई, तो दूसरी ओर, अहिंसा का विचार अधिक गहन होता चला गया है। एक
ओर, स्वजाति और स्वधर्मी मनुष्य की हत्या के निषेध से प्रारंभ होकर षट्जीवनिकाय की हिंसा के निषेध तक इसने अर्थविस्तार पाया है, तो दूसरी ओर, प्राणवियोजन के बाह्य-रूप से द्वेष, दुर्भावना और असावधानी (प्रमाद) के आन्तरिक-रूप तक, इसने गहराइयों में प्रवेश किया है। पुनः, अहिंसा ने 'हिंसा मत करो' के निषेधात्मक-अर्थ से लेकर दया, करुणा, दान, सेवा और सहयोग के विधायक-अर्थ तक भी अपनी यात्रा की है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि अहिंसा का अर्थविकास त्रि-आयामी (थ्री डाईमेन्सनल) है, अतः जब भी हम अहिंसा की अवधारणा को लेकर कोई चर्चा करना चाहते हैं, तो हमें उसके सभी पहलुओं की ओर ध्यान देना होगा।
जैनागमों के संदर्भ में अहिंसा के अर्थ की व्याप्तिको लेकर कोई चर्चा करने के पूर्व हमें यह देख लेना होगा कि अहिंसा की इस अवधारणा ने कहाँ कितना अर्थ पाया है। यहूदी, ईसाई और इस्लाम-धर्म में अहिंसाका अर्थविस्तार
मूसा ने धार्मिक-जीवन के लिए जो दस आदेश प्रसारित किए थे, उनमें एक है 'तुम हत्या मत करो, किन्तु इस आदेश का अर्थ यहूदी-समाज के लिए व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए अपनी जातीय-भाई की हिंसा नहीं करने से अधिक नहीं रहा। धर्म के नाम पर तो हम स्वयं पिता को अपने पुत्र की बलि देता हुआ देखते हैं। इस्लामने चाहे अल्लाह को रहमानुर्रहीम'करुणाशील कहकर सम्बोधित किया हो और चाहे यह भी मान लिया हो कि सभी जीवधारियों को जीवन उतना ही प्रिय है, जितना तुम्हें अपना है, किन्तु उसमें अल्लाह की इस करुणा का अर्थ स्वधर्मियों तक ही सीमित रहा। इधर, मनुष्यों के प्रति इस्लाम आज तक संवेदनशील नहीं बन सका है। पुनः, यहूदी और इस्लाम-दोनों ही धर्मों में धर्म के नाम पर पशुबलि को सामान्य रूप से आज तक स्वीकृत किया जाता है। इस प्रकार, इन धर्मों में मनुष्य की संवेदनशीलता स्वजाति और स्वधर्मी, अर्थात् अपनों से अधिक अर्थविस्तार नहीं पा सकी है। इस संवदेनशीलता का अधिक विकास हमें ईसाई-धर्म में दिखाई देता है। ईसा शत्रु के प्रति भी करुणाशील होने की बात कहते हैं । वे अहिंसा, करुणा और सेवा के क्षेत्र में अपने
और पराए, स्वधर्मी और विधर्मी, शत्रु और मित्र के भेद से ऊपर उठ जाते हैं। इस प्रकार, उनकी करुणा सम्पूर्ण मानवता के प्रति बरसी है। यह बात अलग है कि मध्ययुग में ईसाइयों नेधर्म के नाम पर खून की होली खेलीहो और ईश्वर-पुत्र के आदेशों की अवहेलना की हो, किन्तु ऐसा तो हम सभी करते हैं। धर्म के नाम पर पशुबलि की स्वीकृति भी ईसाई-धर्म में
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org