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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
आवश्यकता होगी। यद्यपि हमें यह समझ भी लेना होगा कि जब तक मनुष्य की संवेदनशीलता को पशुजगत् तक विकसित नहीं किया जाएगा और मानवीय आहार को सात्विक नहीं बनाया जाएगा, मनुष्य की आपराधिक प्रवृत्तियों पर पूरा नियन्त्रण नहीं होगा। आदर्श अहिंसक - समाज की रचना हेतु हमें समाज से आपराधिक प्रवृत्तियों को समाप्त करना होगा और आपराधिक प्रवृत्तियों के नियमन के लिए हमें मानव-जाति में संवेदनशीलता, संयम एवं विवेक के तत्वों को विकसित करना होगा।
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अहिंसा के सिद्धान्त पर तुलनात्मक दृष्टि से विचार- अहिंसा के आदर्श को जैन, बौद्ध और वैदिक परम्पराएँ समान रूप से स्वीकार करती हैं, लेकिन जहाँ तक अहिंसा के पूर्ण आदर्श को व्यावहारिक जीवन में उतारने की बात है, तीनों ही परम्पराएँ कुछ अपवादों को स्वीकार कर जीवन के धारण और रक्षण के निमित्त हो जाने वाले जीवघात (हिंसा) को हिंसा के रूप में नहीं मानती हैं। यद्यपि इन अपवादात्मक स्थितियों में भी साधक का राग-द्वेष की वृत्तियों से ऊपर उठकर अप्रमत्त चेता होना आवश्यक है। इस प्रकार, तीनों परम्पराएँ इस सम्बन्ध में भी एकमत हो जाती हैं कि हिंसा-अहिंसा का प्रश्न मुख्य रूप से आन्तरिक है ; बाह्य-रूप में हिंसा के होने पर भी राग-द्वेष-वृतियों से ऊपर उठा हुआ अप्रमत्त मनुष्य अहिंसक है, जबकि बाह्य-रूप में हिंसा नहीं होने पर भी प्रमत्त मनुष्य हिंसक है । तीनों परम्पराएँ इस सम्बन्ध में भी एकमत हैं कि अपने-अपने शास्त्रों की आज्ञानुसार आचरण करने पर होने वाली हिंसा हिंसा नहीं है 152
अतः, अहिंसा सम्बन्धी सैद्धान्तिक मान्यताओं में सभी आचारदर्शन एक-दूसरे के पर्याप्त निकट आ जाते हैं, लेकिन इन आधारों पर यह मान लेना भ्रांति है कि व्यावहारिकजीवन में अहिंसा के प्रत्यय का विकास सभी आचारदर्शनों में समान रूप से हुआ है।
अहिंसा के सिद्धान्त की सार्वभौम स्वीकृति के बावजूद भी अहिंसा के अर्थ को लेकर सब धर्मों में एकरूपता नहीं है। हिंसा और अहिंसा के बीच खींची गई भेद - रेखा सभी अलग-अलग है। कहीं पशुवध को ही नहीं, नरबलि को भी हिंसा की कोटि में नहीं माना गया है, तो कहीं वानस्पतिक हिंसा, अर्थात् पेड़-पौधे को पीड़ा देना भी हिंसा माना जाता है। चाहे अहिंसा की अवधारणा उन सबमें समान रूप से उपस्थित हो, किन्तु अहिंसक - चेतना का विकास उन सबमें समान रूप से नहीं हुआ है। क्या मूसा के Thou shalt not kill के आदेश का वही अर्थ है, जो महावीर की 'सव्वेसत्ता न हंतव्वा' की शिक्षा का है ? यद्यपि हमें यह ध्यान रखना होगा कि अहिंसा के अर्थविकास की यह यात्रा किसी कालक्रम
होकर मानवजाति की सामाजिक चेतना तथा मानवीय विवेक एवं संवेदनशीलता के विकास के परिणामस्वरूप हुई है। जो व्यक्ति या समाज जीवन के प्रति जितना अधिक
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