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________________ सामाजिक-नैतिकता के केन्द्रीय-तत्त्व : अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह 243 बहुजन हितार्थ हिंसा अपरिहार्य भी हो सकती है। जब समाज या राष्ट्र का कोई सदस्य या वर्ग,अथवा दूसरा राष्ट्र अपने हितों के लिए हिंसा पर अथवा अन्याय पर उतारू हो जाए, तो निश्चय ही अहिंसा की दुहाई देने से काम न चलेगा। जब तक जैन-आचार्यों द्वारा उद्घोषित 'मानव जाति एक है' की कल्पना साकार नहीं हो पाती, जब तक सम्पूर्ण मानव-समाज ईमानदारी के साथ अहिंसा के पालन के लिए प्रतिबद्ध नहीं होता, तब तक अहिंसकसमाज की बात करना कपोलकल्पना ही कहा जाएगा। जैनागम जिस पूर्ण अहिंसा के आदर्श को प्रस्तुत करते हैं, उसमें भी जब संघ की या संघ के किसी सदस्य की सुरक्षा या न्याय का प्रश्न आया, तो हिंसा को स्वीकार करना पड़ा, गणाधिपति चेटक और आचार्य कालक के उदाहरण इसके प्रमाण हैं । यही नहीं, निशीथचूर्णि में तो यहाँ तक स्वीकार कर लिया गया है कि संघ की सुरक्षा के लिए मुनि भी हिंसा का सहारा ले सकता है। ऐसे प्रसंगों में पशु-हिंसा तो क्या, मनुष्य की हिंसा भी उचित मान ली गई है। जब तक मानव-समाज का एक भी सदस्य पाशविक-प्रवृत्तियों में आस्था रखता है, यह सोचना व्यर्थ ही है कि सामुदायिक-जीवन में पूर्ण अहिंसा का आदर्श व्यवहार्य बन सकेगा । निशीथचूर्णि में अहिंसा के अपवादों को लेकर जो कुछ कहा गया है, उसे चाहे कुछ लोग साध्वाचार के रूप में सीधे मान्य करना न चाहते हों; किंतु क्या यह नपुंसकता नहीं होगी, जब किसी मुनिसंघके सामने किसी तरुणी साध्वी का अपहरण हो रहा हो, या उस पर बलात्कार हो रहा हो और वे अहिंसा की दुहाई देते हुए मौन दर्शक बने रहें ? क्या उनका कोई दायित्व नहीं है ? यह बात चाहे हास्यास्पद लगती हो कि अहिंसा की रक्षा के लिए हिंसा आवश्यक है, किन्तु व्यावहारिक-जीवन में अनेक बार ऐसी परिस्थितियाँ आ सकती हैं, जिनमें अहिंसकसंस्कृति की रक्षा के लिए हिंसक-वृत्ति अपनानी पड़े। यदि हिंसा में आस्था रखनेवाला कोई समाज किसी अहिंसक-समाज को पूरी तरह मिटा देने को तत्पर हो जाए, क्या उस अहिंसक-समाज को अपने अस्तित्व के लिए कोई संघर्ष नहीं करना चाहिए ? हिंसाअहिंसा का प्रश्न निरा वैयक्तिक-प्रश्न नहीं है। जब तक सम्पूर्ण मानव-समाज एक साथ अहिंसा की साधना के लिए तत्पर नहीं होता है, किसी एक समाज या राष्ट्र द्वारा कही जानेवाली अहिंसा के आदर्श की बात कोई अर्थ नहीं रखती है। संरक्षणात्मक और सुरक्षात्मक-हिंसा समाज-जीवन के लिए अपरिहार्य है। समाज-जीवन में इसे पान्य भी करना ही होगा। इसी प्रकार, उद्योग-व्यवसाय और कृषि-कार्यों में होने वाली हिंसा भी समाज-जीवन में बनी ही रहेगी। मानव-समाज में मांसाहार एवं तजन्य हिंसा को समाप्त करने की दिशा में सोचा तो जा सकता है, किन्तु उसके लिए कृषि के क्षेत्र में एवं अहिंसकआहार की प्रचुर उपलब्धि के सम्बन्ध में व्यापक अनुसंधान एवं तकनीकी-विकास की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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