________________
भारतीय आचार- दर्शन: एक तुलनात्मक अध्ययन
अहिंसा को अव्यवहार्य मानकर तिलांजलि दे दें। यद्यपि एक शरीरधारी के नाते यह हमारी विवशता है कि हम द्रव्य और भाव- -दोनों अपेक्षा से पूर्ण अहिंसा के आदर्श को उपलब्ध नहीं कर सकते हैं, किन्तु उस दिशा में क्रमशः आगे बढ़ सकते हैं और जीवन की पूर्णता के साथ ही पूर्ण अहिंसा के आदर्श को भी उपलब्ध कर सकते हैं। कम से कम हिंसा की दिशा में आगे बढ़ते हुए साधक के लिए जीवन का अन्तिम क्षण अवश्य ही ऐसा है, जब वह पूर्ण अहिंसा आदर्श को साकार कर सकता है। जैनधर्म की पारिभाषिक शब्दावली में कहें, तो पादोपगमन-संथारा एवं चौदहवें अयोगीकेवली-गुणस्थान की अवस्थाएँ ऐसी हैं, जिनमें पूर्ण अहिंसा का आदर्श साकार हो जाता है। पूर्ण अहिंसा सामाजिक - सन्दर्भ में
242
-
पुनः, अहिंसा की सम्भावना पर हमें न केवल वैयक्तिक दृष्टि से विचार करना है, अपितु सामाजिक दृष्टि से भी विचार करना है। चाहे यह सम्भव भी हो, व्यक्ति शरीर, सम्पत्ति, संघ और समाज से निरपेक्ष होकर पूर्ण अहिंसा के आदर्श को उपलब्ध कर सकता है; फिर भी ऐसी निरपेक्षता किन्हीं विरल साधकों के लिए ही सम्भव होगी, सर्वसामान्य के लिए तो सम्भव नहीं कही जा सकती है, अतः मूल प्रश्न यह है कि क्या सामाजिक - जीवन पूर्ण अहिंसा के आदर्श पर खड़ा किया जा सकता है ? क्या पूर्ण अहिंसक - समाज की रचना सम्भव है ? इस प्रश्न का उत्तर देने के पूर्व मैं आपसे समाज रचना के स्वरूप पर कुछ बातें करना चाहूँगा। एक तो यह कि अहिंसक चेतना अर्थात् संवेदनशीलता के अभाव में समाज की कल्पना ही सम्भव नहीं है। समाज जब भी खड़ा होता है, आत्मीयता, प्रेम और सहयोग के आधार पर खड़ा होता है, अर्थात् अहिंसा के आधार पर खड़ा होता है। क्योंकि हिंसा का अर्थ है - घृणा, विद्वेष, आक्रामकता और जहाँ भी ये वृत्तियाँ बलवती होंगी, सामाजिकता की भावना ही समाप्त हो जाएगी, समाज ढह जाएगा, अतः समाज और अहिंसा सहगामी हैं। दूसरे शब्दों में, यदि हम मनुष्य को एक सामाजिक-प्राणी मानते हैं, तो हमें यह मानना होगा कि अहिंसा उसके लिए स्वाभाविक ही है। जब भी कोई समाज खड़ा होगा और टिकेगा, तो वह अहिंसा की भित्ति पर ही खड़ा होगा और टिकेगा, किंतु एक दूसरा पहलू भी है, वह यह कि समाज के लिए भी अपने अस्तित्व और अपने सदस्यों के हितों के संरक्षण का प्रश्न मुख्य है और जहाँ अस्तित्व की सुरक्षा और हितों के संरक्षण का प्रश्न है, वहाँ हिंसा अपरिहार्य है। हितों में टकराव स्वाभाविक है, अनेक बार तो एक का हित दूसरे के अहित पर, एक का अस्तित्व दूसरे के विनाश पर खड़ा होता है, ऐसी स्थिति में समाज - जीवन में भी हिंसा अपरिहार्य होगी । पुनः, समाज का हित और सदस्य - व्यक्ति का हित भी परस्पर विरोध में हो सकता है। जब वैयक्तिक और सामाजिक हितों के संघर्ष की स्थिति हो, तो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org