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________________ सामाजिक-नैतिकता के केन्द्रीय-तत्त्व : अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह 241 की आसक्ति का परित्याग कर सर्वतोभावेन पूर्ण अहिंसा की दिशा में आगे बढ़ें। इस प्रकार, पूर्ण अहिंसा का आदर्श पूर्णतया अव्यावहारिक भी नहीं रहता है। मनुष्य जैसे-जैसे सम्पत्ति और शरीर के मोह से ऊपर उठता जाता है, अहिंसा का आदर्श उसके लिए व्यवहार्य बनता जाता है। पूर्ण अनासक्त जीवन में पूर्ण अहिंसा व्यवहार्य बन जाती है। यद्यपि शरीरधारी रहते हुए पूर्ण अहिंसा एक आदर्श ही रहेगी, वह यथार्थ नहीं बन पाएगी। जब शरीर के संरक्षण का मोह समाप्त होगा, तभी वह आदर्श यथार्थ की भूमि पर अवतरित होगा, फिर भी एक बात ध्यान में रखनी होगी, वह यह कि जब तक शरीर है और शरीर के संरक्षण की वृत्ति है, चाहे वह साधना के लिए ही क्यों न हो, यह कथमपि सम्भव नहीं है कि व्यक्ति पूर्ण अहिंसा के आदर्श को पूर्णरूपेण साकार कर सके। शरीर के लिए आहार आवश्यक है, कोई भी आहार बिना हिंसा के सम्भव नहीं होगा। चाहे हमारा मुनिवर्ग यह कहताभी हो कि हम औद्देशिक-आहार नहीं लेते हैं, किन्तु क्या उनकी विहारयात्रा में साथ चलने वाला पूरालवाजिमा, सेवा में रहने के नाम पर लगनेवाले चौके औद्देशिक नहीं हैं ? जब समाज में रात्रिभोजन सामान्य हो गया हो, क्या सन्ध्याकालीन गोचरी में अनौद्देशिक-आहार मिल पाना सम्भव है, क्या कश्मीर से कन्याकुमारी तक और मुम्बई से कलकत्ता तक की सारी यात्राएँ औद्देशिक-आहार के अभाव में निर्विघ्न सम्भव हो सकती हैं ? क्या आहेत-प्रवचन की प्रभावना के लिए मन्दिरों का निर्माण, पूजा और प्रतिष्ठा के समारोह, संस्थाओं का संचालन, मुनिजनों के स्वागत और विदाई-समारोह तथा संस्थाओं के अधिवेशन षट्काय की नवकोटियुक्त अहिंसा के परिपालन के साथ कोई संगति रख सकते हैं ? हमें अपनी अन्तरात्मा से यह सब पूछना होगा। हो सकता है कि कुछ विरलसन्त और साधक हों, जो इन कसौटियों पर खरे उतरते हों, मैं उनकी बात नहीं कहता, वे शतशः वन्दनीय हैं, किन्तु सामान्य स्थिति क्या है ? फिर भिक्षाचर्या, पाद-विहार, शरीर-संचालन, श्वासोछ्वास, किसमें हिंसा नहीं है। पृथ्वी, अग्नि, वायु, वनस्पति आदि सभी में जीव हैं, ऐसा कोई मनुष्य नहीं, जो इन्हें नहीं मारता हो, पुनः कितने ही ऐसे सूक्ष्म प्राणी हैं, जो इन्द्रियों से नहीं, अनुमान से जाने जाते हैं, मनुष्य की पलकों के झपकने मात्र से ही जिनके कंधे टूट जाते हैं, अतः जीव-हिंसा से बचा नहीं जा सकता। एक ओर, षट्जीवनिकाय की अवधार और दूसरी ओर, नवकोटियुक्तपूर्ण अहिंसा का आदर्श, जीवित रहकर इन दोनों में संगति : 'ठा पानाअशक्य है, अतः जैन-आचार्यों को भी यह कहना पड़ा कि अनेकानेक :-समूहों से परिव्याप्त विश्व में साधक का अहिंसकत्व अन्तर में आध्यात्मिक-विशुद्धि की दृष्टि से ही है' (ओधनियुक्ति, 747), लेकिन इसका यह अर्थ भी नहीं है कि हम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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