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________________ भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन सकती है। यदि विरोधी पक्ष मानवीय स्तर पर हो, तब तो अहिंसक विरोध सफल हो जाता है, लेकिन यदि विरोधी पक्ष पाशविक स्तर पर हो, तो अहिंसक विरोध की सफलता सन्देहास्पद बन जाती है। मानव में मानवीय गुणों की सम्भावना की आस्था ही अहिंसक - विरोध का केन्द्रीय तत्त्व है। मानवीय गुणों में हमारी आस्था जितनी बलशाली होगी और विरोधी में मानवीय गुणों का जितना अधिक प्रकटन होगा, अहिंसक विरोध की सफलता भी उतनी ही अधिक होगी। -- - 240 जहाँ तक उद्योगजा और आरम्भजा - हिंसा की बात है, एक गृहस्थ उससे नहीं बच सकता, क्योंकि जब तक शरीर का मोह है, तब तक आजीविका का अर्जन और शारीरिकआवश्यकता की पूर्ति - दोनों ही आवश्यक हैं, यद्यपि इस स्तर पर मनुष्य अपने को स प्राणियों की हिंसा से बचा सकता है। जैन-धर्म में उद्योग-व्यवसाय एवं भरणपोषण के लिए भी जीवों की हिंसा करने का निषेध है । लेकिन, जब व्यक्ति शरीर और सम्पत्ति के मोह से ऊपर उठ जाता है, तो वह पूर्ण अहिंसा की दिशा में आगे बढ़ जाता है । जहाँ तक श्रमण-साधक या संन्यासी की बात है, वह अपरिग्रही होता है, उसे अपने शरीर पर भी ममत्व नहीं होता, अतः वह सर्वतोभावेन हिंसा से विरत होने का व्रत लेता है। शरीर धारण मात्र के लिए कुछ अपवादों को छोड़कर वह संकल्पपूर्वक और विवशतावश दोनों ही परिस्थितियों में त्रस और स्थावर - हिंसा से विरत हो जाता है । मुनि नथमलजी के शब्दों में, कोई भी व्यक्ति एक ही डग में चोटी तक नहीं पहुँच सकता । वहधीमे-धीमे आगे बढ़ता है । भगवान् महावीर ने अहिंसा की पहुँच के कुछ स्तर निर्धारित किए थे, जो वस्तुस्थिति पर आधारित हैं। उन्होंने हिंसा को तीन भागों में विभक्त किया - (1) संकल्पजा (2) विरोधजा और (3) आरम्भजा । संकल्पजा-हिंसा आक्रमणात्मक - हिंसा है । वह सबके लिए सर्वथा परिहार्य है । विरोधजा - हिंसा प्रत्याक्रमणात्मक-हिंसा है। उसे छोड़ने में वह असमर्थ होता है, जो भौतिक-संस्थानों पर अपना अस्तित्व रखना चाहता है। आरम्भजा - हिंसा आजीविकात्मक - हिंसा है । उसे छोड़ने में वे सब असमर्थ होते हैं, जो भौतिक साधनों के अर्जन-संरक्षण द्वारा अपना जीवन चलाना चाहते हैं । 51 1 प्रथम स्तर पर हम आसक्ति, तृष्णा आदि के वशीभूत होकर की जाने वाली अनावश्यक आक्रमणात्मक - हिंसा से बचें, फिर दूसरे स्तर पर जीवनयापन एवं आजीविकोपार्जन के निमित्त होने वाली त्रस हिंसा से विरत हों, तीसरे स्तर पर विरोध के अहिंसक तरीके को अपनाकर प्रत्याक्रमणात्मक - हिंसा से विरत हों । इस प्रकार, जीवन . . के लिए आवश्यक जैसी हिंसा से भी क्रमशः ऊपर उठते हुए चौथे स्तर पर शरीर और परिग्रह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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