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________________ सामाजिक-नैतिकता के केन्द्रीय-तत्त्व : अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह 239 लेकिन भौतिक-स्तर पर पूर्ण अहिंसा की कल्पना समीचीन नहीं है। अहिंसक-जीवन की सम्भावनाएँभौतिक-स्तर के ऊपर उठने पर विकसित होती हैं- व्यक्ति जैसे-जैसे भौतिकता के स्तर से ऊपर उठता जाता है, वैसे-वैसे अहिंसक-जीवन की पूर्णता की दिशा में बढ़ता जाता है। इसी आधार पर जैन-धर्म में अहिंसा की दिशा में बढ़ने के लिए कुछ स्तर निर्धारित हिंसा का वह रूप, जिसे संकल्पजा-हिंसा कहा जाता है, सभी के लिए त्याज्य है। संकल्पजा-हिंसा हमारे वैचारिक या मानसिक-जगत् पर निर्भर है। मानसिक-संकल्प के कर्ता के रूप में व्यक्ति में स्वतन्त्रता की सम्भावनाएँ सर्वाधिक विकसित हैं। अपने मनोजगत् में व्यक्ति अपेक्षाकृत अधिक स्वतन्त्र है। इस स्तर पर पूरी तरह से अहिंसा का पालन अधिक सहज एवं सम्भव है। बाह्य-स्थितियाँ इस स्तर पर हमें प्रभावित कर सकती हैं, लेकिन शासित नहीं कर सकती। व्यक्ति स्वयं अपने विचारों का स्वामी होता है, अत: इस स्तर पर अहिंसक होना सभी के लिए आवश्यक है। व्यावहारिक-दृष्टि से संकल्पजा-हिंसा आक्रमणकारी हिंसा है। यह न तो जीवन के रक्षण के लिए है और न जीवन-निर्वाह के लिए है, अतः यह सभी के लिए त्याज्य है। हिंसा का दूसरा रूप विरोधजा है। यह प्रत्याक्रमण या सुरक्षात्मक है। स्व एवं पर के जीवन एवं स्वत्वों के रक्षण के लिए यह हिंसा करनी पड़ती है। इसमें बाह्य-परिस्थितिगत तत्त्वों का प्रभाव प्रमुख होता है। बाह्य-स्थितियाँ व्यक्ति को बाध्य करती हैं कि वह अपने एवं अपने साथियों के जीवन एवं स्वत्वों के रक्षण के लिए प्रत्याक्रमण के रूप में हिंसा करे। जो भी मनुष्य शरीर एवं अन्य भौतिक-संस्थानों पर अपना स्वत्व रखना चाहते हैं, अथवा जो अपने और अपने साथियों के अधिकारों में आस्था रखते हैं, वे इस विरोधजा-हिंसा को छोड़ नहीं सकते। गृहस्थ या श्रावक हिंसा के इस रूप को पूरी तरह छोड़ पाने में असमर्थ होते हैं, क्योंकि वे शरीर एवं अन्य भौतिक-वस्तुओं पर अपना स्वत्व रखना चाहते हैं। इसी प्रकार, शासक-वर्ग एवं राजनीतिक-नेता, जो मानवीय-अधिकारों में एवं राष्ट्रीय-हितों में आस्था रखते हैं, इसे पूरी तरह छोड़ने में असमर्थ हैं। यद्यपि आधुनिक युग में गांधी एक ऐसे विचारक अवश्य हुए हैं, जिन्होंने विरोध का अहिंसक-तरीका प्रस्तुत किया और उसमें सफलता भी प्राप्त की, तथापि अहिंसक-रूप से विरोध करना और उसमें सफलता प्राप्त करना हर किसी के लिए सम्भव नहीं है। अहिंसकप्रक्रिया से अधिकारों का सरक्षण करने में वही सफल हो सकता है, जिसे शरीर का मोहन हो, पदार्थों में आसक्ति न हो और विद्वेष-भाव न हो। इतना ही नहीं, अहिंसक-तरीके से अधिकारों के संरक्षण की कल्पना एक सभ्य एवं सुसंस्कृत मानव-समाज में ही सम्भव हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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