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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
दूसरे, हिंसा-अहिंसा की विवक्षा में बाह्य-पक्ष की अवहेलना भी मात्र कतिपय अपवादात्मक-अवस्थाओं में ही क्षम्य है। हिंसा का हेतु मानसिक-प्रवृत्तियाँ, कषायें हैं,यह मानना तो ठीक है, लेकिन यह मानना कि मानसिक-वृत्ति या कषायों के अभाव में होने वाली द्रव्यहिंसा हिंसा नहीं है, उचित नहीं। यह ठीक है कि संकल्पजन्य-हिंसा अधिक निकष्ट और निकाश्चित कर्म-बंधकरती है, लेकिन संकल्प के अभाव में होने वाली हिंसा, हिंसा नहीं है या उससे कर्म-आस्रव नहीं होता है, यह जैनकर्म-सिद्धान्त के अनुकूल नहीं है। व्यावहारिक-जीवन में हमें इसको हिंसा मानना होगा। इस प्रकार के दृष्टिकोण को निम्न कारणों से उचित नहीं माना जा सकता -
(1) जैन-दर्शन में आस्रव का कारण तीन योग हैं- (अ) मनयोग (ब) वचनयोग और (स) काययोग । इनमें से किसी भी योग के कारण कर्मों का आगमन (आस्रव) होता अवश्य है। द्रव्यहिंसा में काया की प्रवृत्ति है, अतः उसके कारण आस्रव होता है। जहाँ आम्रव है, वहाँ हिंसा है। प्रश्नव्याकरणसूत्र में आम्रव के पाँचद्वार (1. हिंसा, 2. असत्य, 3. स्तेय, 4. अब्रह्मचर्य, 5. परिग्रह) माने गए हैं, जिसमें प्रथम आम्रवद्वार हिंसा है। ऐसा कृत्य, जिसमें प्राण-वियोजन होता है, हिंसा है और दूषित है। यह ठीक है कि कषायों के अभाव में उससे निकाश्चित कर्म-बंध नहीं होता है, लेकिन क्रिया-दोष तो लगता है।
(2) जैन-शास्त्रों में वर्णित पच्चीस क्रियाओं में ईर्यापथिक' क्रिया भी है। जैनतीर्थंकर राग-द्वेष आदि कषायों से मुक्त होते हैं, लेकिन काययोग के कारण उन्हें ईर्यापथिकक्रिया लगती है और ईर्यापथिक-बँध भी होता है। यदि द्रव्य-हिंसा मानसिक-कषायों के
अभाव में हिंसा नहीं है, तो कायिक-व्यापार के कारण उन्हें ईर्यापथिक-क्रिया क्यों लगती? इसका तात्पर्य यह है कि द्रव्यहिंसा हिंसा है ।
(3) द्रव्यहिंसा यदि मानसिक-प्रवृत्तियों के अभाव में हिंसा ही नहीं है, तो फिर यह दो भेद-भावहिंसा और द्रव्यहिंसा नहीं रह सकते।
(4) वृत्ति और आचरण का अन्तर कोई सामान्य नियम नहीं है। सामान्य रूप से व्यक्ति की जैसी वृत्तियाँ होती हैं, वैसा ही उसका आचरण होता है, अतः यह मानना कि आचरण का बाह्य-पक्ष वृत्तियों से अलग होकर कार्य कर सकता है, एक भ्रान्त धारणा है।
पूर्ण अहिंसा के आदर्श की दिशा में - यद्यपिआन्तरिक और बाह्य-रूप से पूर्ण अहिंसा के आदर्श की उपलब्धि जैन-दर्शन का साध्य है, लेकिन व्यवहार के क्षेत्र में इस आदर्श की उपलब्धि सहज नहीं है। अहिंसा एक आध्यात्मिक-आदर्श है और आध्यात्मिक स्तर पर ही इसकी पूर्ण उपलब्धि सम्भव है, लेकिन व्यक्ति का वर्तमान जीवन अध्यात्म और भौतिकता का एक सम्मिश्रण है। जीवन के आध्यात्मिक-स्तर पर पूर्ण अहिंसा सम्भव है,
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