________________
सामाजिक-नैतिकता के केन्द्रीय-तत्त्व : अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह
237
स्थानों का विवेचन उपलब्ध है, जबकि हिंसाअनिवार्य हो जाती है। ऐसे अवसरों पर अगर की जाने वाली हिंसा से डरकर कोई उसका आचरण नहीं करता (वह हिंसा नहीं करता) तो उलटे दोष का भागी बनता है। यदि गीता में वर्णित युद्ध के अवसर को एक अपवादात्मकस्थिति के रूप में देखें, तो सम्भवतः जैन-विचारणा गीता से अधिक दूर नहीं रह जाती है। दोनों ही ऐसी स्थिति में व्यक्ति के चित्त साम्य (कृतयोगित्व) और परिणत शास्त्रज्ञान (गीतार्थ) पर बल देती हैं।
___ अहिंसा के बाह्य-पक्ष की अवहेलना उचित नहीं -हिंसा-अहिंसा के विचार में जिस भावात्मक आन्तरिक-पक्ष पर जैन-आचार्य इतना अधिक बल देते रहे हैं, उसका महत्व निर्विवाद रूप से सभी को स्वीकार्य है। यही नहीं, इस सन्दर्भ में जैनदर्शन, गीता और बौद्ध दर्शन में विचार-साम्य है, जिस पर हम विचार कर चुके हैं । यह निश्चित है कि हिंसा-अहिंसा की विवक्षा में भावात्मक या आन्तरिक-पहलू ही मूल केन्द्र है, लेकिन दूसरे बाह्य-पक्ष की अवहेलना भी कथमपि सम्भव नहीं है। यद्यपि वैयक्तिक-साधना की दृष्टि से आध्यात्मिक एवं आन्तरिक-पक्ष का ही सर्वाधिक मूल्य है; लेकिन जहाँ सामाजिक एवं व्यावहारिक-जीवन का प्रश्न है, हिंसा-अहिंसाकी विवक्षा में बाह्य-पहलूको भी झुठलाया नहीं जा सकता, क्योंकि व्यावहारिक-जीवन और सामाजिक-व्यवस्था की दृष्टि से जिस पर विचार किया जा सकता है, वह तो आचरण का बाह्य-पक्ष ही है।
गीता और बौद्ध आचार-दर्शन की अपेक्षा भी जैन दर्शन ने इस बाह्य-पक्ष पर गहनतापूर्वक समुचित विचार किया है। जैन-परम्परा यह मानती है कि किन्हीं अपवाद की अवस्थाओं को छोड़कर सामान्यतया जो विचार में है, वही व्यवहार में प्रकट होता है। अन्तरंग और बाह्य अथवा विचार और आचार के सम्बन्ध में द्वैत-दृष्टि उसे स्वीकार्य नहीं है। उसकी दृष्टि में अन्तरंग में अहिंसक-वृत्ति के होते हुए बाह्य हिंसक-आचरण कर पाना, यह एक प्रकार की भ्रान्ति है, छलना है, आत्मप्रवंचना है। सूत्रकृतांगसूत्र में कहा गया है कि यदि हृदय पापमुक्त हो, तो (हिंसादि) क्रिया करने पर भी निर्वाण अवश्य मिलता है, यह एक मिथ्याधारणा है। यदि गीता का यह मन्तव्य हो कि अन्तर में अहिंसक-वृत्ति के होते हुए भी हिंसात्मक-क्रिया की जा सकती है, तो जैन-दर्शन का उससे स्पष्ट विरोध है। जैनधर्म कहता है कि अन्तर में अहिंसक-वृत्ति के होते हुए हिंसा की नहीं जा सकती, यद्यपि हिंसा हो सकती है। हिंसा करना सदैव ही संकल्पात्मक होगा और आन्तरिक-विशुद्धि के होते हुए हिंसात्मक-कर्म का संकल्प सम्भव ही नहीं। 50
वस्तुतः, हिंसा-अहिंसा की विवक्षा में जैन-दृष्टि का सार यह है कि हिंसा, चाहे वह बाह्य हो या आन्तरिक, वह आचार का नियम नहीं हो सकती।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org