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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
स्पर्श नहीं करती। वह आध्यात्मिक-उपलब्धि नहीं कही जा सकती। निषेधात्मक-अहिंसा मात्र बाह्य-हिंसा नहीं करना है, यह अहिंसा का शरीर हो सकता है, अहिंसा की आत्मा नहीं। किसी को नहीं मारना-यह अहिंसा के सम्बन्ध में मात्र स्थूल दृष्टि है, लेकिन यह मानना भ्रान्तिपूर्ण होगा कि जैनधर्म अहिंसा की यह स्थूल एवं बहिर्मुखी-दृष्टि तब सीमित रही है। जैन-दर्शन का केन्द्रीय-सिद्धान्त अहिंसा शाब्दिक-दृष्टि से चाहे नकारात्मक है, लेकिन उसकी अनुभूति नकारात्मक नहीं है। उसकी अनुभूति सदैव ही विधायक रही है। सर्वत्र आत्मभावमूलक करुणा और मैत्री की विधायक-अनुभूतियों से अहिंसा की धारा प्रवाहित हुई है। अहिंसा क्रिया नहीं, सत्ता है, वह आत्मा की एक अवस्था है। आत्मा की प्रमत्त अवस्था ही हिंसा है और अप्रमत्त अवस्थाही अहिंसा है। आचार्य भद्रबाहुओघनियुक्ति में लिखते हैं कि पारमार्थिक-दृष्टि से आत्मा ही हिंसा है और आत्मा अहिंसा है। प्रमत्त आत्मा हिंसक है और अप्रमत्त आत्मा अहिंसक है। आत्मा की प्रमत्त-दशा हिंसा की अवस्था है और अप्रमत्त-दशा अहिंसा की अवस्था है।
__द्रव्य एवंभाव-अहिंसा-अहिंसा को सम्यक् रूप से समझने के लिए पहले यह जान लेना आवश्यक है कि जैन-विचारणा के अनुसार हिंसा क्या है ? जैन-विचारणा हिंसा का दो पक्षों से विचार करती है। एक हिंसा का बाह्य-पक्ष है, जिसे जैन पारिभाषिकशब्दावली में द्रव्य-हिंसा कहा गया है। द्रव्य-हिंसा स्थूल एवं बाह्य-घटना है। यह एक क्रिया है, जिसे प्राणातिपात, प्राणवध, प्राणहनन आदि नामों से जाना जाता है। जैनविचारणा आत्मा को सापेक्ष रूप में नित्य मानती है, अतः हिंसा के द्वारा जिसका हनन होता है, वह आत्मा नहीं, वरन्प्राण है-प्राणजैविक-शक्ति है। जैन-विचारणा में प्राण दसमाने गए हैं। पाँच इन्द्रियों की शक्ति, मन, वाणी और शरीर का त्रिविध बल, श्वसन-क्रिया एवं आयुष्य-ये दस प्राण हैं। इन प्राण-शक्तियों का वियोजीकरण ही द्रव्य-दृष्टि से हिंसा है।" यह हिंसा की यह परिभाषा उसके बाह्य-पक्ष पर बल देती है। द्रव्य-हिंसा का तात्पर्य प्राणशक्तियों का कुण्ठन, हनन तथा विलगाव करना है।
भाव-हिंसा हिंसा का विचार है, यह मानसिक अवस्था है, जो प्रमादजन्य है। आचार्य अमृतचन्द्र हिंसा के भावात्मक-पक्ष पर बल देते हुए हिंसा-अहिंसा की परिभाषा करते हैं। उनका कथन है कि रागादि कषायों का अभाव अहिंसा है और उनका उत्पन्न होना ही हिंसा है। यही जैन-आगमों की विचार-दृष्टि का सार है। हिंसा की पूर्ण परिभाषा तत्त्वार्थसूत्र में मिलती है। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार राग, द्वेष आदि प्रमादों से युक्त होकर किया जाने वाला प्राण-वध हिंसा है।
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