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सामाजिक-नैतिकता के केन्द्रीय-तत्त्व : अहिंसा, अनाग्रह और अपरिग्रह
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हिंसा के प्रकार
जैन-विचारकों ने द्रव्य और भाव-इन दो रूपों के आधार पर हिंसा के चार विभाग किए हैं - 1. मात्र शारीरिक-हिंसा, 2. मात्र वैचारिक-हिंसा, 3. शारीरिक एवं वैचारिकहिंसा, और 4. शाब्दिक-हिंसा । मात्र शारीरिक-हिंसा या द्रव्य-हिंसा वह है, जिसमें हिंसक-क्रिया तो सम्पन्न हुई हो, लेकिन हिंसक-विचार का अभाव हो। उदाहरणस्वरूप, सावधानीपूर्वक चलते हुए भी दृष्टिदोष याजन्तु की सूक्ष्मता के कारण उसके नहीं दिखाई देने पर हिंसा हो जाना। मात्र वैचारिक-हिंसायाभाव-हिंसा वह है, जिसमें हिंसा की क्रिया तो अनुपस्थित हो, लेकिन हिंसा का संकल्प उपस्थित हो। इसमें कर्ता हिंसा के संकल्प से युक्त होता है, लेकिन बाह्य-परिस्थितिवश उसे क्रियान्वित करने में सफल नहीं हो पाता है, जैसे-कैदी का न्यायाधीश की हत्या करने का विचार (जैन-परम्परा में इस सम्बन्ध में तंदुलमच्छ एवं कालसौकरिक कसाई के उदाहरण प्रस्तुत किए जाते हैं ) वैचारिक एवं शारीरिक-हिंसा-जिसमें हिंसा का विचार और हिंसा की क्रिया- दोनों ही उपस्थित हों, जैसे-संकल्पपूर्वक की गई हत्या।शाब्दिक-हिंसा- जिसमें न तो हिंसा का विचार हो, न हिंसा की क्रिया, मात्र हिंसक-शब्दों का उच्चारण हो, जैसे-सुधार की भावना से मातापिता का बालकों पर या गुरु का शिष्य पर कृत्रिम रूप से कुपित होना। नैतिकता की या बन्धन की तीव्रता की दृष्टि से हिंसा के इन चार रूपों में क्रमशः शाब्दिक-हिंसा की अपेक्षा संकल्प रहित-शारीरिक-हिंसा, संकल्परहित शारीरिक-हिंसा की अपेक्षा मात्र वैचारिकहिंसा और मात्र वैचारिक-हिंसा की अपेक्षा संकल्पयुक्त शारीरिक-हिंसा अधिक निकृष्ट मानी गई है।
हिंसाकी विभिन्न स्थितियाँ - वस्तुतः, हिंसककर्म की तीन अवस्थाएँ हो सकती हैं- 1. हिंसा की गई हो, 2. हिंसा करनी पड़ी हो और 3. हिंसा हो गई हो। पहली स्थिति में यदि हिंसा चेतनरूपसे की गई है, तो वह संकल्पयुक्त है, यदि अचेतनरूप से की गई है, तो वह प्रमादयुक्त है। हिंसक-क्रिया, चाहे संकल्प से उत्पन्न हुई हो, या प्रमाद के कारण हुई हो, कर्ता दोषी माना जाता है। दूसरी स्थिति में हिंसा चेतनरूप से किन्तु विवशतावश करनी पड़ती है, यह बाध्यता शारीरिक हो सकती है अथवा बाह्य-परिस्थितिगत, यहाँ भी कर्ता दोषी है। वह कर्म का बन्धन भी करता है, लेकिन पश्चात्ताप या ग्लानि के द्वारा वह उससे शुद्ध हो जाता है। बाध्यता की अवस्था में की गई हिंसा के लिए कर्ता को दोषी मानने का आधार यह है कि समग्र बाध्यताएँ स्वयं के द्वारा आरोपित हैं। बाध्यता या बन्धन के लिए कर्ता स्वयं उत्तरदायी है। बाध्यताओं की स्वीकृति कायरता का प्रतीक है। बन्धन में होना और बन्धन को मानना-दोनों ही कर्ता की विकृतियाँ हैं - कर्ता स्वयं दोषी है ही। नैतिक
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