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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
मार्ग से ऊपर उठकर उस क्षेत्र में अवस्थित हो जाए, जहाँ कर्त्तव्यों के मध्य संघर्ष की समस्या ही नहीं रहे। जैन-विचारकों ने भी कर्तव्यों के संघर्ष की इस समस्या से एवं कर्त्तव्य के निश्चय कर पाने में उत्पन्न कठिनाई से बचने के लिए स्वधर्म और परधर्म की एक
आध्यात्मिक-व्याख्या प्रस्तुत की, जिसमें व्यक्ति का कर्तव्य है-स्वरूप में अवस्थित होना। उनके अनुसार, प्रत्येक तत्त्व के अपने-अपने स्वाभाविक गुण-धर्म हैं । स्वाभाविक गुणधर्म से तात्पर्य उन गुण-धर्मों से है, जो बिना किसी दूसरे तत्त्व की अपेक्षा के ही उस तत्त्व में रहते हैं, अर्थात् परतत्त्व से निरपेक्ष रूप में रहने वाले स्वाभाविक गुण-धर्म स्वधर्म हैं। इसके विपरीत, वे गुण-धर्म, जो दूसरे तत्त्व की अपेक्षा रखते हैं, या उसके कारण उत्पन्न होते हैं, वैभाविक गुण-धर्म हैं, इसलिए परधर्म हैं। एकीभाव से अपने गुण-पर्यायों में परिणमन करना ही स्वसमय है, स्वधर्म है। जैन-दर्शन के अनुसार, वस्तु का निज स्वभाव ही उसका स्वधर्म है, वैभाविक गुण-धर्म स्वधर्म नहीं हैं; क्योंकि वैभाविक गुणधर्म परापेक्षी हैं, पर के कारण उत्पन्न होते हैं, अतः निरपेक्ष नहीं हैं। आसक्ति या राग चैतन्य का स्वधर्म नहीं है, क्योंकि आसक्ति या राग निज से भिन्न परतत्त्व की भी अपेक्षा करता है। बिना किसी द्वैत के आसक्ति सम्भव ही नहीं। जीव या आत्मा के लिए अज्ञान परधर्म है, क्योंकि आत्मा तो ज्ञानमय है, आसक्ति वैभाविक-धर्म या परधर्म है, क्योंकि परापेक्षी है। जैनाचार-दर्शन के अनुसार, विशुद्ध चैतन्य तत्त्व के लिए राग, द्वेष, मोह, कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि परधर्म हैं, जबकि ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि स्वधर्म हैं। जैनधर्म के अनुसार, गीता के 'स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः' का सच्चा अर्थ यह है कि ज्ञान-दर्शन रूप आत्मिक-स्वगुणों में स्थित रहकर मरण भी वरेण्य है। स्वाभाविक स्वगुणों का परित्याग एवं राग-द्वेष मोहादि से युक्त वैभाविक-दशा (परधर्म) का ग्रहण आत्मा के लिए सदैव भयप्रद है, क्योंकि वह उसके पतन का या बंधन का मार्ग है।
____ आचार्य कुन्दकुन्द स्वधर्म और परधर्म की विवेचना अत्यन्त मार्मिक रूप में प्रस्तुत करते हुए कहते हैं - 'जो जीव स्वकीय गुणपर्यायरूप सम्यक्-ज्ञान, दर्शन और चारित्र में रमण कर रहा है, उसे ही परमार्थ-दृष्टि से स्व-समय या स्वधर्म में स्थित जानो और जो जीव पुद्गल या कर्म-प्रदेशों में स्थित है, अर्थात् पर-पदार्थों से प्रभावित होकर उन पर राग-द्वेष
आदिभाव करके, उन पर तत्त्वों के आश्रय से स्व-स्वरूप को विकारी बना रहा है, उसे परसमय या परधर्म में स्थित जानो। राग, द्वेष और मोह का परिणमन पर के कारण ही होता है, अतः वह पर-स्वभाव या पर-धर्म ही है। आचार्य आगे कहते हैं कि स्वस्वरूप या स्वधर्म से च्युत होकर पर-धर्म, पर-स्वभाव या पर-समय में स्थित होना बन्धन है और यह दूसरे के
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