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स्वधर्म की अवधारणा
अपेक्षा भी दिखावे के रूप में उनका अधिक अच्छे ढंग से पालन करता है, लेकिन उसका वह आचरण मात्र बाह्य - दिखावा होता है, उसमें सार नहीं होता, उसी प्रकार सुसमाचरित पर-धर्म में सुआचरण मात्र दिखावा या ढोंग होता है, सुआचरित या सुअनुष्ठित का यहाँ मात्र यही अर्थ है ।
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स्वधर्म का आध्यात्मिक- अर्थ - गीताकार निष्कर्ष रूप में यह कहता है कि हे पार्थ । तू सब धर्मों का परित्याग कर मेरी शरण में आ, मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर दूँगा, तो हमारे सामने एक समस्या पुनः उपस्थित होती है कि सब धर्मों के परित्याग की धारणा का स्वधर्म के परिपालन की धारणा से कैसे मेल बैठाया जाए ? यदि विचारपूर्वक देखें, तो यहाँ गीतकार की दृष्टि में जिन समस्त धर्मों का परित्याग इष्ट है, वे विधि-निषेधरूप सामाजिक कर्त्तव्य तथा बाह्याचरणरूप धर्माधर्म के नियम हैं। वस्तुतः, कर्तव्य के क्षेत्र में कभी-कभी ऐसा अवसर उपस्थित हो जाता है कि जहाँ धर्म-धर्म का निर्णय या स्वधर्म और परधर्म का निर्णय करने में मनुष्य अपने को असमर्थ पाता है । प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि व्यक्ति अपने स्वधर्म या परधर्म का निश्चय नहीं कर पाता, तो वह क्या करे ? गीताकार स्पष्ट रूप से कहता है कि ऐसी अनिश्चय की अवस्था में धर्म-अधर्म के विचार से ऊपर उठकर अपनेआपको भगवान् के सम्मुख नग्न और निश्छल रूप में प्रस्तुत कर देना चाहिए और उसकी इच्छा का यन्त्र बनकर या मात्र निमित्त बनकर आचरण करना चाहिए। यहाँ गीता स्पष्ट ही आत्म-समर्पण पर जोर देती है, लेकिन जैन- दृष्टि, जो किसी ऐसे कृपा करने वाले संसार के नियन्ता ईश्वर पर विश्वास नहीं करती, इस कर्तव्याकर्तव्य या स्वधर्म और परधर्म के अनिश्चय की अवस्था में व्यक्ति को यही सुझाव देती है कि उसे राग-द्वेष के भावों से दूर होकर उपस्थित कर्त्तव्य का आचरण करना चाहिए। वस्तुतः, इस श्लोक के माध्यम से गीतकार सच्चे स्वधर्म के ग्रहण की बात कहता है, परमात्मा के प्रति सच्चा समर्पण परधर्म का त्याग और स्वधर्म का ग्रहण ही है, क्योंकि हमारा वास्तविक स्वरूप राग-द्वेष से रहित अवस्था है और उसे ग्रहण करना सच्चे आध्यात्मिक-स्वधर्म का ग्रहण है।
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वस्तुतः, स्वधर्म और परधर्म का यह व्यावहारिक कर्त्तव्य-पथ नैतिक - साधना की इतिश्री नहीं है, व्यक्ति को इससे ऊपर उठना होता है। विधि-निषेध का कर्तव्य मार्ग नैतिक-स - साधना का मात्र बाह्य शरीर है, उसकी आत्मा नहीं । विधि-निषेध के इस व्यवहारमार्ग में कर्त्तव्यों का संघर्ष सम्भाव्य है, जो व्यक्ति को कर्त्तव्य - विमूढ़ता में डाल देता है, अतः गीताकार ने सम्पूर्ण विवेचन के पश्चात् यही शिक्षा दी की मनुष्य अहं के रिक्तिकरण के द्वारा अपने को भगवान् के सम्मुख समर्पित कर दे और इस प्रकार सभी धर्माधर्मों के व्यवहार
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