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________________ भारतीय आचार- दर्शन: एक तुलनात्मक अध्ययन I के लिए कहा हो । महावीर प्रत्येक साधक से, चाहे वह साधना के उच्च स्तरों (श्रमण-धर्म की साधना ) में प्रविष्ट होने का प्रस्ताव लेकर उनके सम्मुख उपस्थित हुआ हो, या साधना के निम्न स्तर (गृहस्थ-धर्म की साधना ) में प्रविष्ट होने का प्रस्ताव लेकर उपस्थित हुआ हो, यही कहते हैं - हे देवानुप्रिय ! तुम्हें जैसा सुख हो, वैसा करो, परन्तु प्रमाद मत करो। 10 वे साधना में इस बात पर जोर नहीं देते है कि तुम साधना में विकास के किस बिन्दु पर स्थित हो रहे हो, साधना के राजमार्ग पर किस स्थान पर खड़े हो, वरन् इस बात पर जोर देते हैं कि साधना के क्षेत्र में जिस स्थान पर तुम खड़े हो, उस स्थान के कर्तव्यों के परिपालन में कितने सतर्क, निष्ठावान् या जागरूक हो । जैन-विचारधारा यह मानती है कि नैतिकता के क्षेत्र में यह बात प्राथमिक महत्व की नहीं है कि साधक कितनी कठोर साधना कर रहा है, वरन् प्राथमिक महत्व इस बात का है कि वह जो कुछ कर रहा है, उसमें कितनी सच्चाई और निष्ठा है। यदि एक साधु, जो साधना की उच्चतम भूमिका में स्थित होते हुए भी अपने कर्त्तव्यों के प्रति सर्तक नहीं है, निष्ठावान् नहीं है, ईमानदार नहीं है, तो वह उस गृहस्थसाधक की अपेक्षा, जो साधना की निम्न भूमिका में स्थित होते हुए भी अपने स्थान के कर्त्तव्यों के प्रति निष्ठावान् है, जागरूक है और ईमानदार है, नीचा ही है। नैतिक-श्रेष्ठता इस बात पर निर्भर नहीं करती कि नैतिक-सोपान में कौन कहाँ पर खड़ा है, वरन् इस बात पर निर्भर करती है कि वह स्वस्थान के कर्तव्यों के प्रति कितना निष्ठावान् है। आचारांगसूत्र में स्पष्ट कहा है कि साधक जिस भावना या श्रद्धा से साधना पथ पर अभिनिष्क्रमण करे, उसका प्रामाणिकतापूर्वक पालन करे ।" गीता इसी बात को अत्यन्त संक्षेप में इस प्रकार प्रस्तुत करती है कि स्व-क्षमता एवं स्व-स्वभाव के प्रतिकूल ऐसे सुआचरित प्रतीत होने वाले उस परधर्म से, स्व-स्वभाव के अनुकूल निम्नस्तरीय होते हुए भी स्वधर्म श्रेष्ठ है । परधर्म, अर्थात् अपने स्वस्वभाव एवं क्षमताओं के प्रतिकूल आचरण सदैव ही भयप्रद होता है और इसलिए स्वधर्म का परिपालन करते हुए मृत्यु का वरण कर लेना भी कल्याणकारी है। 12 प्रस्तुत श्लोक में 'परधर्मात्स्वनुनिष्ठतात्' का सामान्य अर्थ सुसमाचरित परधर्म से लगाया जाता है, लेकिन परधर्म वस्तुतः सुअनुष्ठित या सुसमाचरित होता ही नहीं है, क्योंकि प्रकृति कता है, वही सुआचरित हो सकता है। यहाँ सुआचरित कहने का तात्पर्य यही है कि बाहर से देखने पर अच्छी तरह आचरित होता दिखाई देता है, यद्यपि मूलतः वैसा नहीं है। हृदय में वासनाओं के प्रबल आवेग के होने पर भी ढोंगी साधु जीवन की बाह्य क्रियाओं का ठीक रूप से आचरण करता है, कभी-कभी तो वह अच्छे साधु की - 220 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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