SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 216
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भारतीय आचार- दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन भाग में ब्रह्मचर्य, दूसरे में गृहस्थ, तीसरे में वानप्रस्थ और चौथे में संन्यास आश्रम ग्रहण करना चाहिए । जैन - परम्परा और आश्रम - सिद्धान्त - श्रमण - परम्पराओं में आयु के आधार पर आश्रमों के विभाजन का सिद्धान्त उपलब्ध नहीं होता। यदि हम वैदिक-विचारधारा की दृष्टि से तुलनात्मक विचार करें, तो यह पाते हैं कि श्रमण परम्पराएँ आश्रम - सिद्धान्त के सन्दर्भ में विकल्प के नियम को ही महत्व देती है। उनके अनुसार, संन्यास आश्रम ही सर्वोच्च और व्यक्ति को जब भी वैराग्य उत्पन्न हो जाए, तभी इसे ग्रहण कर लेना चाहिए। उनका मत जाबालोपनिषद् और शंकर के अधिक निकट है। भ्रमण - परम्पराओं में ब्रह्मचर्याश्रम का भी विशेष विवेचन उपलब्ध नहीं होता । चूँकि श्रमण- परम्पराओं ने आध्यात्मिकजीवन पर ही अधिक जोर दिया, अतः उनमें ब्रह्मचर्याश्रम के लौकिक-शिक्षाकाल और गृहस्थाश्रम के लौकिक-विधानों के सन्दर्भ में कोई विशेष दिशा-निर्देश उपलब्ध नहीं होता । लौकिक-जीवन की शिक्षा ग्रहण करने के लिए सामान्यतया व्यावसायिक ब्राह्मण शिक्षकों के पास ही विद्यार्थी जाते थे, क्योंकि श्रमण-वर्ग सामान्यतया आध्यात्मिक-शिक्षा ही प्रदान करता था । गृहस्थाश्रम के सन्दर्भ में आध्यात्मिक विकास एवं सामाजिकव्यवस्था की दृष्टि से यद्यपि श्रमण परम्पराओं में नियम उपलब्ध हैं, लेकिन विवाह एवं पारिवारिक जीवन के सन्दर्भ में सामान्यतया नियमों का अभाव ही है। 214 यद्यपि परवर्ती जैनाचार्यों ने हिन्दू-धर्म की इस आश्रम - व्यवस्था को धीरे-धीरे स्वीकार कर लिया और उसे जैन - परम्परा के अनुरूप बनाने का प्रयास किया । आचार्य जिनसेन ने आदिपुराण में यह स्वीकार किया है कि ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुये चारों आश्रम जैनधर्म के अनुसार उत्तरोत्तर शुद्धि के परिचायक हैं। 30 जैन- परम्परा में ये चारों आश्रम स्वीकृत रहे हैं। ब्रह्मचर्याश्रम को लौकिक जीवन की शिक्षाकाल के रूप में तथा गृहस्थाश्रम को गृहस्थ-धर्म के रूप में एवं वानप्रस्थ आश्रम को ब्रह्मचर्य - प्रतिमा से लेकर उद्दिष्टविरत या श्रमणभूत- प्रतिमा की साधना के रूप में अथवा सामायिक - चारित्र के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। संन्यास आश्रम तो श्रमण- जीवन के रूप में स्वीकृत है ही । इस प्रकार, चारों ही आश्रम जैन- परम्परा में भी स्वीकृत हैं । बौद्ध-परम्परा और जैन-परम्परा दोनों में आश्रम - सिद्धान्त के सन्दर्भ में समान दृष्टिकोण ही स्वीकृत रहा है। बौद्ध परम्परा और आश्रम - सिद्धान्त - बौद्ध परम्परा भी जैन- परम्परा के दृष्टिकोण के समान ही आश्रम - सिद्धान्त के सन्दर्भ में विकल्प के सिद्धान्त को स्वीकार करती है। उसके अनुसार, संन्यास - आश्रम ( श्रमण - जीवन) ही सर्वोच्च है और व्यक्ति जब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy