________________
वर्णाश्रम-व्यवस्था
213
के लिए है और इस रूप में वह चारों ही आश्रगों की एक पूर्व तैयारी-रूप है। गृहस्थाश्रम में अर्थ और काम-पुरुषार्थों की सिद्धि के लिए विशेष प्रयत्न किया जाता है, जबकि धर्मपुरुषार्थ की साधना वानप्रस्थाश्रम में और मोक्ष-पुरुषार्थ की साधना संन्यास-आश्रम में की जाती है। यह स्मरणीय है कि वर्ण का सिद्धान्त सामाजिक-जीवन के लिए है, किन्तु आश्रम का सिद्धान्त वैयक्तिक है। आश्रम-सिद्धान्त यह बताता है कि व्यक्ति का आध्यात्मिकलक्ष्य क्या है, उसे अपने को किस प्रकार ले चलना है तथा अन्तिम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उसे कैसी तैयारी करनी है। डॉ. काणे के अनुसार, आश्रम-सिद्धान्त एक उत्कृष्ट धारणा थी। भले ही इसे भलीभाँति क्रियान्वित नहीं किया जा सका, परन्तु इसके लक्ष्य या उद्देश्य बड़े ही महान् और विशिष्ट थे। आश्रम-संस्था का विकास कब हुआ, यह कहना कठिन है। लगभग सभी भारतीय आचार-दर्शनों के ग्रन्थों में आश्रम-सिद्धान्त सम्बन्धी विवेचन उपलब्ध हो जाता है। छान्दोग्य-उपनिषद् के काल तक हमें तीन आश्रमों का विवेचन उपलब्ध होता है। उस युग तक संन्यास-आश्रम की विशेष चर्चा सुनाई देती है। संन्यास और वानप्रस्थ सामान्यतया एक ही माने गए थे, लेकिन परवर्ती साहित्य में चारों ही आश्रमों का विधान और उसके विधि-निषेध के नियम विस्तार से उपलब्ध हैं।
वैदिक-परम्परा में चारों आश्रमों के सम्बन्ध में तीन विकल्पों की चर्चा उपलब्ध होती है-1. समुच्चय, 2. विकल्प एवं 3. बाध । मनु ने इन चारों आश्रमों में समुच्चय का सिद्धान्त स्वीकार किया है। उनके अनुसार, प्रत्येक मनुष्य को क्रमश: चारों ही आश्रमों का अनुसरण करना चाहिए। दूसरे मत के अनुसार, आश्रमों की इस अवस्था में विकल्प हो सकता है, अर्थात् मनुष्य इच्छानुसार इनमें से किसी एक आश्रम को ग्रहण कर सकता है। बाध के सिद्धान्त के अनुसार, गृहस्थाश्रम ही एकमात्र वास्तविक आश्रम है और अन्य आश्रम अपेक्षाकृत उससे कम मूल्य वाले हैं। आश्रम-व्यवस्था के सन्दर्भ में विकल्प-सिद्धान्त यह मानता है कि ब्रह्मचर्य-आश्रम के पश्चात् गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास में से किसी भी आश्रम को ग्रहण किया जा सकता है। जाबालोपनिषद् एवं आचार्य शंकर ने इस मत का समर्थन किया है। उनके अनुसार, जब भी वैराग्य उत्पन्न हो जाए, तभी प्रव्रज्या ग्रहण कर लेना चाहिए। 28 बाध-सिद्धान्त को मानने वाले गौतम एवं बौधायन हैं । इस सिद्धान्त के अनुसार, गृहस्थाश्रम ही सर्वोत्कृष्ट है। इस मत के कुछ विचारकों ने वानप्रस्थ एवं संन्यास को कलियुग में वय॑ मान लिया है।
वैदिक-परम्परा में आश्रम-सिद्धान्त जीवन को चार भागों में विभाजित कर उनमें से प्रत्येक भाग में एक-एक आश्रम के अनुसार जीवन व्यतीत करने का निर्देश देता है। प्रथम
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org