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वर्णाश्रम-व्यवस्था
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भी वैराग्य-भावना से युक्त हो जाए, उसे प्रव्रज्या ग्रहण कर लेनी चाहिए। बौद्ध-परम्परा में भी ब्रह्मचर्याश्रम शिक्षण-काल के रूप में, गृहस्थाश्रम गृहस्थ धर्म के रूप में, वानप्रस्थआश्रम श्रामणेर के रूप में और संन्यास-आश्रम श्रमण-जीवन के रूप में स्वीकृत है। जैन, बौद्ध और वैदिक-परम्पराओं का आश्रम-विचार निम्न तालिका से स्पष्ट हैवैदिक-परम्परा जैन-परम्परा
बौद्ध-परम्परा 1. ब्रह्मचर्याश्रम शिक्षण-काल
शिक्षण-काल 2. गृहस्थाश्रम गृहस्थ-धर्म
गृहस्थ-धर्म 3. वानप्रस्थाश्रम प्रतिमायुक्त गृहस्थ-जीवन श्रामणेर-दीक्षा
या
सामायिकचारित्र 4. संन्यासाश्रम छेदोपस्थापनीयचारित्र उपसम्पदा
सामान्यतः, आश्रम-सिद्धान्त का निर्देश यही है कि मनुष्य क्रमशः नैतिक एवं आध्यात्मिक-प्रगति करता हुआ तथा वासनामय जीवन से ऊपर विजय प्राप्त करता हुआ मोक्ष के सर्वोच्च साध्य को प्राप्त कर सके। सन्दर्भ ग्रन्थ1. आचारांग 1/2/6/102 2. यजुर्वेद, 31/10, ऋग्वेद पुरुषसूक्त 10/90/12 3. अभिधान राजेन्द्र, खण्ड 4, पृ. 1441 4. अभिधान राजेन्द्र, खण्ड 4, पृ. 1441 5. उत्तराध्ययन, 25/33 6. निर्ग्रन्थ-प्रवचन-भाष्य, पृ. 289 7. उत्तराध्ययन, 12/37 8. प्रवचन-सारोद्धार 107 9. सुत्तनिपात, 35/3-37, 57-59 10. मज्झिमनिकाय 2/5/3-उद्धृत-जातिभेद और बुद्ध, पृ. 7 11. मज्झिमनिकाय 2/5/3-उद्धृत जातिभेद और बुद्ध, पृ. 8 12. मज्झिमनिकाय, 2/5/3 13. गीता 4/13, 18/41 14. भगवद्गीता (रा.), पृ. 163
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