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(233); अनाग्रह की अवधारणा के फलित (233); अनासक्ति (अपरिग्रह) (234); जैन-धर्म में अनासक्ति (234); बौद्धधर्म में अनासक्ति (236); गीता में अनासक्ति (237); अनासक्ति के प्रश्न पर तुलनात्मक दृष्टि से विचार (238)। अध्याय : 14 सामाजिक-धर्म एवं दायित्व 275-290
सामाजिक-धर्म (242); ग्राम-धर्म (242); नगर-धर्म (242); राष्ट्र-धर्म (243); पाखण्ड-धर्म (243); कुल-धर्म (244); गण-धर्म (244); संघ-धर्म (244); श्रुत-धर्म (245); चारित्र-धर्म (245);
अस्तिकाय-धर्म (245); जैनधर्म और सामाजिक-दायित्व (245); जैनमुनि के सामाजिक-दायित्व (246); नीति और धर्म का प्रकाशन (246); धर्म की प्रभावना एवं संघ की प्रतिष्ठा की रक्षा (246); भिक्षु-भिक्षुणियों की सेवा एवं परिचर्या (246); भिक्षुणी-संघ का रक्षण (247); संघ के आदेशों का परिपालन (247); गृहस्थ-वर्ग के सामाजिक दायित्व (247); भिक्षुभिक्षुणियों की सेवा (247); परिवार की सेवा (247); विवाह एवं सन्तानप्राप्ति (248); जैन-धर्म में सामाजिक-जीवन के निष्ठा-सूत्र (250); जैनधर्म में सामाजिक-जीवन के व्यवहार-सूत्र (250); बौद्ध-परम्परा में सामाजिक-धर्म (252); बौद्ध-धर्म में सामाजिक-दायित्व (253); पुत्र के माता-पिता के प्रति कर्त्तव्य (254); माता-पिता का पुत्र पर प्रत्युपकार (254); आचार्य (शिक्षक) के प्रति कर्त्तव्य (254); शिष्य के प्रति आचार्य का प्रत्युपकार (254); पत्नी के प्रति पति के कर्तव्य (254); पति के प्रति पत्नी का प्रत्युपकार (254); मित्र के प्रति कर्त्तव्य (254); मित्र का प्रत्युपकार (255); सेवक के प्रति स्वामी के कर्त्तव्य (255); सेवक का स्वामी के प्रति प्रत्युपकार (255): श्रमणब्राह्मणों के प्रति कर्त्तव्य (255): श्रमण-ब्राह्मणों का प्रत्युपकार (255); वैदिक-परम्परा में सामाजिक धर्म (255)। अध्याय : 15 गृहस्थधर्म जैन-साधना में धर्म के दो रूप (257); जैन-धर्म में गृहस्थ-साधना का स्थान (259); बौद्ध आचार-दर्शन में गृहस्थ जीवन का स्थान (260); गीता की दृष्टि में गृहस्थ-धर्म का स्थान (261); श्रमण और गृहस्थ-साधना में अन्तर (262); गृहस्थ-धर्म की विवेचन-शैली (264); गृहस्थ-साधकों के दो प्रकार 1. अविरत (अव्रती) सम्यग्दृष्टि, 2. देशविरत (देशव्रती) सम्यग्दृष्टि (264); गृहस्थ-उपासकों के तीन भेद 1. पाक्षिक, 2. नैष्ठिक 3, साधक
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