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________________ स्वहित बनाम लोकहित 1 गीता के अनुसार, लोकहित करना मनुष्य का कर्तव्य है । सर्व प्राणियों के हितसम्पादन लगा हुआ पुरुष ही परमात्मा को प्राप्त करता है । वह ब्रह्म-निर्वाण का अधिकारी होता है। 50 जिसे कर्म करने से कोई प्रयोजन नहीं रह गया है, अर्थात् जो जीवन्मुक्त हो गया है, जिसे संसार के प्राणियों से कोई मतलब नहीं, उसे भी लोक-हितार्थ कर्म करते रहना चाहिए।'' श्रीकृष्ण अर्जुन से यही कहते हैं कि लोकसंग्रह (लोकहित ) के लिए तुझे कर्तव्य करना उचित है । 52 गीता में भगवान् के अवतार धारण करने का उद्देश्य साधुजनों की रक्षा, दुष्टों का नाश और धर्म की संस्थापना है । 3 201 1 के इस प्रकार, जैन, बौद्ध और गीता इन तीनों परम्पराओं में तीर्थंकर, बुद्ध और ईश्वर का कार्य लोकहित या लोकमंगल ही माना गया है, यद्यपि जैन व बौद्ध - विचारणाओं में तीर्थंकर एवं बुद्ध का कार्य मात्र धर्म-संस्थापना और लोक-कल्याण है । वे गीता के कृष्ण के समान धर्म-संस्थापना के साथ-साथ न तो साधुजनों की रक्षा का दावा करते हैं और न दुष्ट प्राण की बात कहते हैं। दुष्टों के प्रहाण की बात उनकी विशुद्ध अहिंसक वाणी से मेल नहीं खाती है । यद्यपि अंगुत्तरनिकाय में बुद्ध ने शिक्षापदों की प्रज्ञप्ति के जो कारण दिए हैं, वे गीता के समान ही हैं, 54 तथापि लोक-मंगल के आदर्श को लेकर तीनों विचारणाओं में महत्वपूर्ण साम्य है । इन आचार - दर्शनों का केन्द्रीय या प्रधान तत्त्व परोपकार ही है, यद्यपि उसे अध्यात्म या परमार्थ का विरोधी नहीं होना चाहिए। गीता में भी जिन-जिन स्थानों पर लोकहित का निर्देश है, वहाँ निष्कामता की शर्त है ही । निष्काम और आध्यात्मिक या नैतिक-तत्त्वों के अविरोध में रहा हुआ परार्थ ही गीता को मान्य है। गीता में भी स्वार्थ और परार्थ की समस्या का सच्चा हल आत्मवत् सर्वभूतेषु की भावना में खोजा गया है। जब सभी में आत्मदृष्टि उत्पन्न हो जाती है, तो न स्वार्थ रहता है, न परार्थ; क्योंकि जहाँ 'स्व' हो, वहाँ स्वार्थ रहता है, जहाँ पर हो, वहाँ परार्थ रहता है, लेकिन सर्वात्मभाव में 'स्व' और 'पर' नहीं होते हैं, अतः उस दशा में स्वार्थ और परार्थ भी नहीं होता है। वहाँ होता है केवल, परमार्थ । भौतिक-स्वार्थों से ऊपर परार्थ का स्थान सभी को मान्य है। स्वार्थ और परार्थ के सम्बन्ध में भारतीय आचार-व - दर्शनों के दृष्टिकोण को भर्तृहरि के इस कथन से भलीभाँति समझा जा सकता है - प्रथम, जो स्वार्थ का परित्याग कर परार्थ के लिए कार्य करते हैं, वे महान् हैं; दूसरे, जो स्वार्थ के अविरोध में परार्थ करते हैं, अर्थात् अपने हितों का हनन नहीं करते हुए लोकहित करते हैं, वे सामान्य जन हैं ; तीसरे, जो स्वहित के लिए परहित का हनन करते हैं, वे अधम (राक्षस) कहे जाते हैं; लेकिन चौथे, जो निरर्थक परहित का हनन करते हैं, उन्हें क्या कहा जाए, वे तो अधमाधम हैं। 55 फिर भी, हमें यह ध्यान रखना होगा कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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