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________________ 202 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन भारतीय-चिन्तन में परार्थ या लोकहित अन्तिम तत्त्व नहीं है, अन्तिम तत्त्व है-परमार्थ या आत्मार्थ । पाश्चात्य आचार-दर्शन में स्वार्थ और परार्थ की समस्या का अन्तिम हल सामान्य शुभ में खोजा गया, जबकि विशेष रूप से जैन-दर्शन में और सामान्य रूपसे समग्र भारतीय-चिन्तन में इस समस्या का हल परमार्थ या आत्मार्थ में खोजा गया। नैतिक-चेतना के विकास के साथ लोकमंगल की साधना भारतीय-चिन्तन का मूलभूत साध्य रहा है। ऐसी लोकमंगल की सर्वोच्च भावना का प्रतिबिम्ब हमें आचार्य शान्तिदेव के शिक्षासमुच्चय नामक ग्रन्थ में मिलता है। हिन्दी में अनूदित उनकी निम्न पंक्तियाँ मननीय हैं इस दुःखमय नरलोक में, जितने दलित, बन्धग्रसित पीड़ित विपत्ति विलीन हैं ; जितने बहुधन्धी विवेक विहीन हैं। जो कठिन भय से और दारुण शोक से अतिदीन हैं, वे मुक्त हों, निजबन्ध से, स्वच्छन्द हों, सब द्वन्द्व से, छूटे दलन के फन्दसे, हो ऐसा जग में , दुःख से विचले न कोई, वेदनार्थ हिले न कोई, पाप-कर्म करे न कोई, असन्मार्गधरेन कोई, हो सभी सुखशील, पुण्याचारधर्मव्रती, सबका ही परम कल्याण, सबका ही परम कल्याण 156 सन्दर्भ ग्रन्थ1. चाणक्यनीति, 1/6, पंचतंत्र 1/387 2. विदुरनीति, 36 3. सुभाषित-उद्धृत नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण, पृ. 208 4. वही, पृ. 205 5. नीतिशास्त्र की रूपरेखा, पृ. 137 6. यूटिलिटेरियनिज्म, अध्याय 2, उद्धृत नीतिशास्त्र की रूपरेखा, पृ. 144 7. नीति-प्रवेशिका, मैकेन्जी (हिन्दी अनुवाद), पृ. 234 8. आचारांग 1/4/1/127-129 9. सर्वोदय दर्शन, आमुख, पृ. 6 पर उद्धृत। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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