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________________ 200 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन पकड़ गया था, उसकी समालोचना में निम्न विचार प्रस्तुत किए हैं - लोगों की सेवा काय से करते हैं, धर्म से नहीं । दूसरों को धर्म का उपदेश देते हैं, (अपने) लाभ के लिए, न कि (उनके) अर्थ के लिए॥46 स्थविरवादी भिक्षुओं का विरोध लोकसेवा के उस रूप से है, जिसका सेवारूपी शरीर तो है, लेकिन जिसकी नैतिक-चेतनारूपी आत्मा मर चुकी है। वह लोकसेवा सेवा नहीं, सेवा का प्रदर्शन है, दिखावा है, ढोंग है, छलना है, आत्मप्रवंचना है। डॉ. भरतसिंह उपाध्याय के अनुसार, एकांतता की साधना की प्रारम्भिक बौद्ध-धर्म में प्रमुखता अवश्य थी, परन्तु सार्थक तथ्य यह है कि उसे लोकसेवा के या जनकल्याण के विपरीत वहाँ कभी नहीं माना गया, बल्कि यह तो उसके लिए एक तैयारी थी। दूसरी ओर, यदि हम महायानी-साहित्य का गहराई से अध्ययन करें, तो हमें बोधिचर्यावतार, शिक्षासमुच्चय, लंकावतारसूत्र जैसे ग्रन्थों में भी कभी ऐसी सेवाभावना का समर्थन नहीं मिलता, जो नैतिक-जीवन के व्यक्तिगत मूल्यों के विरोध में खड़ी हो । लोक-मंगल का जो आदर्श महायान-परम्परा ने प्रस्तुत किया है, वह भी ऐसे किसी लोकहित का समर्थन नहीं करता, जिसके लिए वैयक्तिक-नैतिकता को समाप्त कर दिया जाए। इस प्रकार, सैद्धांतिक-दृष्टि से लोकहित और आत्महित की अवधारणा में हीनयान और महायान में कोई मौलिक विरोध नहीं रह जाता । यद्यपि व्यावहारिक रूप में यह तथ्य सही है कि जहाँ एक ओर हीनयान ने एकांगी साधना और व्यक्तिनिष्ठ आचार-परम्परा का विकास किया और साधना को अधिकांश रूपेणआन्तरिक एवं वैयक्तिक बना दिया, वहाँ दूसरी ओर महायान ने उसी की प्रतिक्रिया में साधना के वैयक्तिक-पक्ष की उपेक्षा कर उसे सामाजिक और बहिर्मुखी बना दिया। इस तरह, लोकसेवा और लोकानुकम्पा को अधिक महत्व दिया। यहाँ हम इतना अवश्य कह सकते हैं कि हीनयान और महायान ने जिस सीमा तक अपने में इस एकान्तिक को प्रश्रय दिया है, वे उसी सीमा तक बुद्ध की मध्यम-मार्गीय देशना से पीछे भी हटे हैं। ___ स्वहित और लोकहित के सम्बन्ध में गीता का मन्तव्य- गीता में सदैव ही स्वहित के ऊपर लोकहित की प्रतिष्ठा हुई है। गीताकार की दृष्टि में, जो अपने लिए ही पकाता है और खाता है, वह पाप ही खाता है। स्वहित के लिए जीने वाला व्यक्ति गीता की दृष्टि में अधार्मिक और नीच है। गीताकार के अनुसार, जो व्यक्ति प्राप्त भोगों को देने वाले देवों को दिए बिना, उनका ऋण चुकाए बिना खाता है, वह चोर है 49 । सामाजिकदायित्वों का निर्वाह न करना गीता की दृष्टि में भारी अपराध है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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