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________________ 196 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन निष्कामभावसे लोकहित की अवधारणा को सम्भव बनाया। समाज के सावयवता के जिस सिद्धान्त के आधार पर ब्रेडले प्रभृति पाश्चात्य-विचारक लोकहित और स्वहित में समन्वय साधते हैं और उन विचारों की मौलिकता का दावा करते हैं, वे विचार आचार्य शान्तिदेव के ग्रंथों में बड़े स्पष्ट रूप से प्रकट हुए हैं और उनके आधार पर उन्होंने निःस्वार्थ कर्म-योग की अवधारणा को भी सफल बनाया है। वे कहते हैं कि जिस प्रकार निरात्मक (अपनेपन के भावरहित) निज शरीर में अभ्यासवशअपनेपन का बोध होता है, वैसे ही दूसरे प्राणियों के शरीरों में अभ्यास से क्या अपनापन उत्पन्न न होगा ? "अर्थात् दूसरे प्राणियों के शरीरों में अभ्याससे समत्वभाव अवश्य ही उत्पन्न होगा, क्योंकि जैसे हाथ आदि अंगशरीर के अवयव होने के कारण प्रिय होते हैं, वैसे ही सभी देहधारी जगत के अवयव होने के कारण प्रिय क्यों नहीं होंगे, अर्थात् वे भी उसी जगत् के, जिसका मैं अवयवहूँ, अवयव होने के कारण प्रिय होंगे, उनमें भी आत्मभाव होगा और यदि सबमें प्रियता एवं आत्मभाव उत्पन्न हो गया, तो फिर दूसरों के दुःख दूर किए बिना नहीं रहा जा सकेगा, क्योंकि जिसका जो दुःख हो, वह उससे अपने को बचाने का प्रयत्न तो करता है। यदि दूसरे प्राणियों को दुःख होता है, तो हमको उससे क्या ? ऐसा मानो, तो हाथ को पैर का दुःख नहीं होता, फिर क्यों हाथ से पैरका कंटक निकालकर दुःख से उसकी रक्षा करते हो? 39 जैसे हाथ पैर का दुःख दूर किए बिना नहीं रह सकता, वैसे ही समाज का कोई भी प्रज्ञायुक्त सदस्य दूसरे प्राणी का दुःख दूर किए बिना नहीं रह सकता। इस प्रकार, आचार्य समाज की सावयवता को सिद्ध कर उसके आधार पर लोकमंगल का सन्देश देते हुए आगे यह भी स्पष्ट कर देते हैं कि इस लोकमंगल की साधना में निष्कामता होनी चाहिए। वे लिखते हैं, "जिस प्रकार अपने-आपको भोजन कराकर फल की आशा नहीं होती है, उसी प्रकार परार्थ करके भी फल की आशा, गर्व या विस्मय नहीं होता है',40 (क्योंकि परार्थ द्वारा हम अपने ही समाजरूपी शरीर की या उसके अवयवों की सन्तुष्टि करते हैं) इसलिए एकमात्र परोपकार के लिए ही परोपकार करके न गर्व करना और न विस्मय और न विपाकफल की इच्छा ही।" बौद्ध-दर्शन भी आत्मार्थ और परार्थ में कोई भेद नहीं देखता। इतना ही नहीं, वह आत्मार्थ को परार्थ के लिए समर्पित करने के लिए भी तत्पर है, लेकिन उसकी एक सीमा है, जिसे वह भी उसी रूप में स्वीकार करता है, जिस रूप में जैन-विचारकों ने उसे प्रस्तुत किया है। वह कहता है कि लोकमंगल के लिए सब कुछ न्यौछावर किया जा सकता है, यहाँ तक कि अपने समस्त संचित पुण्य और निर्वाण का सुख भी, लेकिन वह उसके लिए अपनी नैतिकता को, अपने सदाचार को समर्पित करने के लिए तत्पर नहीं है। नैतिकता और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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