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________________ स्वहित बनाम लोकहित 195 महत्वपूर्ण मानता है और उसके लिए अपने निर्वाण-सुख को ठुकरा देता है। पर-दुःखकातरता और सेवा के आदर्श का इससे बड़ा संकल्प और क्या हो सकता है ? बौद्ध-दर्शन की लोकहितकारी-दृष्टि का रस-परिपाक तो हमें आचार्य शान्तिदेव के ग्रन्थ शिक्षा समुच्चय और बोधिचर्यावतार में मिलता है। लोकमंगल के आदर्श को प्रस्तुत करते हुए वे लिखते हैं, 'अपने सुख को अलग रख और दूसरों के दुःख (दूर करने) में लग'। दूसरों का सेवक बनकर इस शरीर में जो कुछ वस्तु देख, उससे दूसरों का हित कर।"दूसरे के दुःख से अपने सुख को बिना बदले बुद्धत्व की सिद्धि नहीं हो सकती। फिर संसार में सुख है ही कहाँ ? 32 यदि एक के दुःख उठाने से बहुत का दुःख चला जाए, तो अपने-पराए पर कृपा करके वह दुःख उठाना ही चाहिए। बोधिसत्व की लोकसेवा की भावना का चित्र प्रस्तुत करते हुए आचार्य लिखते हैं, मैं अनाथों का नाथ बनूँगा, यात्रियों का सार्थवाह बनूंगा, पार जाने की इच्छावालों के लिए मैं नाव बनूँगा, मैं उनके लिए सेतु बनूंगा, धरनियाँ बनूँगा। दीपक चाहने वालों के लिए दीपक बनूँगा, जिन्हें शय्या की आवश्यकता है, उनके लिए मैं शय्या बनूँगा, जिन्हें दास की आवश्यकता है, उनके लिए दास बनूंगा, इस प्रकार मैं जगती के सभी प्राणियों की सेवा करूँगा। 34 जिस प्रकार पृथ्वी, अग्नि आदि भौतिक-वस्तुएँ सम्पूर्ण आकाश (विश्वमण्डल) में बसे प्राणियों के सुख का कारण होती हैं, उसी प्रकार मैं आकाश के नीचे रहने वाले सभी प्राणियों का उपजीव्य बनकर रहना चाहता हूँ, जब तक कि सभी प्राणी मुक्ति प्राप्त न कर लें। साधना के साथ सेवा की भावना का कितना सुन्दर समन्वय है। लोकसेवा, लोककल्याण-कामना के इस महान् आदर्श को देखकर हमें बरबस ही श्री भरतसिंहजी उपाध्याय के स्वर में कहना पड़ता है, कितनी उदात्त भावना है। विश्व-चेतना के साथ अपने को आत्मसात् करने की कितनी विह्वलता है। परार्थ में आत्मार्थ को मिला देने का कितना अपार्थिव उद्योग है। आचार्य शान्तिदेव भी केवल परोपकार या लोककल्याण का सन्देश नहीं देते, वरन् उसलोक कल्याण के सम्पादन में भी पूर्ण निष्काम-भावपरभी बल देते हैं। निष्काम-भाव से लोककल्याण कैसे किया जाए, इसके लिए शान्तिदेव ने जो विचार प्रस्तुत किए हैं, वे उनके मौलिक चिन्तन का परिणाम हैं । गीता के अनुसार, व्यक्ति ईश्वरीयप्रेरणा को मानकर निष्काम-भाव से कर्म करता रहे, अथवा स्वयं को और सभी साथी प्राणियों को उसी पर ब्रह्म का हीअंशमानकर सभी में आत्मभाव जाग्रत कर बिना आकांक्षा के कर्म करता रहे, लेकिन निरीश्वरवादी और अनात्मवादी-बौद्धदर्शन में तो यह सम्भव नहीं था । यह तो आचार्य की बौद्धिक-प्रतिभा ही है, जिसने मनोवैज्ञानिक-आधारों पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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