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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
स्वार्थवाद, बौद्धिक - परार्थवाद और सामान्य शुभतावाद का विचारक्षेत्र लोकहित का
भौतिक स्वरूप ही है ।
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2. भाव - लोकहित' - लोकहित का यह स्तर भौतिक-स्तर से ऊपर का है। यहाँ लोकहित के साधन ज्ञानात्मक या चैत्तसिक होते हैं । इस स्तर पर परार्थ और स्वार्थसंघर्ष की सम्भावना अल्पतम होती है।
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3. पारमार्थिक- लोकहित - यह लोकहित का सर्वोच्च स्तर है। यहाँ आत्महित और परहित में कोई संघर्ष या द्वैत नहीं रहता। यहां पर लोकहित का रूप होता है - यथार्थ दृष्टि के सम्बन्ध में मार्गदर्शन करना ।
बौद्धदर्शन की लोकहितकारिणी दृष्टि
बौद्ध-धर्म में लोक-मंगल की भावना का स्रोत प्रारम्भ से ही प्रवाहित रहा है । भगवान् बुद्ध की धर्मदेशना भी जैन तीर्थंकरों की धर्म-देशना के समान लोकमंगल के लिए ही प्रस्फुटित हुई थी । इतिवृत्तक में बुद्ध कहते हैं, हे भिक्षुओं ! दो संकल्प तथागत भगवान् सम्यक सम्बुद्ध को हुआ करते हैं - 1. एकान्त ध्यान का संकल्प और 2. प्राणियों के हित का संकल्प 24 । बोधि प्राप्त कर लेने पर बुद्ध ने अद्वितीय समाधिसुख में विहार करने के निश्चय का परित्याग कर लोकहितार्थ एवं लोकमंगल के लिए परिचारण करना ही स्वीकार किया । यह उनकी लोकमंगलकारी- दृष्टि का सबसे बड़ा प्रमाण है। 25 यही नहीं, बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को लोकहित का ही सन्देश दिया और कहा कि हे भिक्षुओं ! बहुजनों के हित
लिए, बहुजनों के सुख के लिए, लोक की अनुकम्पा के लिए, देव और मनुष्यों के सुख और हित के लिए परिचारण करते रहो । 26 जातक-निदान कथा में भी बोधिसत्व को यह कहते हुए दिखाया गया है कि मुझ शक्तिशाली पुरुष के लिए अकेले तर जाने से क्या लाभ ? मैं तो सर्वज्ञता प्राप्त कर देवताओं सहित इस सारे लोक को तारूँगा । 27
बौद्ध धर्म की महायान शाखा ने तो लोकमंगल के आदर्श को ही अपनी नैतिकता प्राण माना। वहाँ तो साधक लोकमंगल के आदर्श की साधना में परममूल्य निर्वाण की भी उपेक्षा कर देता है, उसे अपने वैयक्तिक- निर्वाण में कोई रुचि नहीं रहती है। महायानीसाधक कहता है - दूसरे प्राणियों को दुःख से छुड़ाने में जो आनन्द मिलता है, वही बहुत काफी है। अपने लिए मोक्ष प्राप्त करना नीरस है, उससे हमें क्या लेना-देना | 28
लंकावतारसूत्र में बोधिसत्व से यहाँ तक कहलवा दिया गया कि मैं तब तक परिनिर्वाण में प्रवेश नहीं करूँगा, जब तक कि विश्व के सभी प्राणी विमुक्ति प्राप्त न कर लें। 29 साधक पर - दुःख - विमुक्ति से मिलने वाले आनन्द को स्व के निर्वाण के आनन्द से भी
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