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________________ स्वहित बनाम लोकहित निष्काम होता है, क्योंकि उसकी कोई कामना नहीं होती, इसलिए उसका कोई स्वार्थ भी नहीं होता। स्वार्थी तो वह होता है, जो यह चाहता है कि सभी लोग उसके हित के लिए कार्य करें । आत्मार्थी स्वार्थी नहीं है, उसकी दृष्टि तो यह होती है कि सभी अपने हित के लिए कार्य करें। स्वार्थ और आत्मकल्याण में मौलिक अन्तर यह है कि स्वार्थ की साधना में राग 1 193 द्वेष की वृत्तियाँ काम करती हैं, जबकि आत्महित या आत्मकल्याण का प्रारम्भ ही राग-द्वेष की वृत्तियों की क्षीणता से होता है। स्वार्थ और परार्थ में संघर्ष की सम्भावना भी तभी है, जब उनमें राग-द्वेष की वृत्ति निहित हो । राग-भाव या स्वहित की वृत्ति से किया जाने वाला परार्थ भी सच्चा लोकहित नहीं है, वह तो स्वार्थ ही है। शासन द्वारा नियुक्त एवं प्रेरित समाजकल्याण अधिकारी वस्तुतः लोकहित का कर्ता नहीं है, वह तो वेतन के लिए काम करता है । इसी तरह, राग से प्रेरित होकर लोकहित करने वाला भी सच्चे अर्थों में लोकहितका कर्ता नहीं है। उसके लोकहित के प्रयत्न राग की अभिव्यक्ति, प्रतिष्ठा की रक्षा, यश-अर्जन की भावना या भावी लाभ की प्राप्ति के हेतु ही होते हैं । ऐसा परार्थ स्वार्थ होता है। सच्चा आत्महित और सच्चा लोकहित राग-द्वेष से रहित अनासक्ति की भूमि पर प्रस्फुटित होता है, लेकिन उस अवस्था में न तो 'स्व' रहता है न 'पर'; क्योंकि जहाँ राग है वहीं 'स्व' है और जहाँ 'स्व' है वहीं 'पर' है । राग के अभाव में स्व और पर का विभेद ही समाप्त हो जाता है। ऐसी राग - विहीन भूमिका से किया जाने वाला आत्महित भी लोकहित होता है और लोकहित आत्महित होता है। दोनों में कोई संघर्ष नहीं, कोई द्वैत नहीं है। उस दशा में तो सर्वत्र आत्मदृष्टि होती है, जिसमें न कोई अपना, न कोई पराया । स्वार्थ- परार्थ की समस्या यहाँ रहती ही नहीं । जैन-विचारणा के अनुसार, स्वार्थ और परार्थ के मध्य सभी अवस्थाओं में संघर्ष रहे, यह आवश्यक नहीं । व्यक्ति जैसे-जैसे भौतिक जीवन से आध्यात्मिक - जीवन की ओर ऊपर उठता जाता है, वैसे-वैसे स्वार्थ- परार्थ का संघर्ष भी समाप्त होता जाता है। जैनविचारकों ने परार्थ या लोकहित के तीन स्तर माने हैं. 1. द्रव्य - लोकहित, 2. भाव - लोकहित और 3. पारमार्थिक - लोकहित । 1. द्रव्य-लोकहित'" - यह लोकहित का भौतिक-स्तर है। भौतिक- उपादानों, जैसे भोजन, वस्त्र, आवास आदि तथा शारीरिक-सेवा के द्वारा लोकहित करना लोकहित का भौतिक-स्तर है । यहाँ पर लोकहित के साधन भौतिक होते हैं । द्रव्य-लोकहित एकान्त । रूप से आचरणीय नहीं कहा जा सकता। यह अपवादात्मक एवं सापेक्ष- नैतिकता का क्षेत्र है । भौतिक-स्तर पर स्वहित की उपेक्षा भी नहीं की जा सकती। यहाँ तो स्वहित और परहित में उचित समन्वय-साधना ही अपेक्षित है। पाश्चात्य नैतिक- विचारणा के परिष्कृत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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