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________________ 192 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन के लिए प्रयत्नशील साधक गणधर है। समूह-हित या गण-कल्याण गणधर के जीवन का ध्येय होता है। 16 3. सामान्य-केवली-आत्म-कल्याण को ही जिसने अपनी साधना का ध्येय बनाया है और जो इसी आधार पर साधना-मार्ग में प्रवृत्त होता हुआ आध्यात्मिक-पूर्णता की उपलब्धि करता है, वह सामान्य-केवली कहलाता है । सामान्य-केवली को पारिभाषिक-शब्दावली में मुण्ड-केवली भी कहते हैं । जैनधर्म में विश्वकल्याण, वर्गकल्याण और वैयक्तिक-कल्याण की भावनाओं को लेकर तदनुकूल प्रवृत्ति करने के कारण ही साधकों की ये विभिन्न कक्षाएँ निर्धारित की गई हैं, जिनसे विश्व-कल्याण की प्रवृत्ति के कारण ही तीर्थंकर को सर्वोच्च स्थान दिया जाता है। जिस प्रकार बौद्ध-विचारणा में बोधिसत्व और अर्हत् के आदर्शों में भिन्नता है, उसी प्रकार जैन-विचारणा में तीर्थंकर और सामान्य-केवली के आदर्शों में तरतमता है। दूसरे, जैन-साधना में संघ (समाज) को सर्वोपरि माना गया है। संघहित समस्त वैयक्तिक-साधनाओं से ऊपर है, संघ के कल्याण के लिए वैयक्तिक-साधना का परित्याग करना भी आवश्यक माना गया है। आचार्य कालक की कथा इसका उदाहरण है। स्थानांगसूत्र में जिन दस धर्मों (कर्तव्यों)1' का निर्देश किया गया है, उनमें संघधर्म, राष्ट्रधर्म, नगरधर्म, ग्रामधर्म और कुलधर्म का उल्लेख इस बात का सबल प्रमाण है कि जैनदृष्टि न केवल आत्महित या वैयक्तिक-विकास तक सीमित है, वरन् उसमें लोकहित या लोककल्याण का अजस्र प्रवाह भी प्रवाहित है। यद्यपि जैन-दर्शन लोकहित, लोकमंगल की बात कहता है, परन्तु उसकी एक शर्त है कि परार्थ के लिए स्वार्थ का विसर्जन किया जा सकता है, लेकिन आत्मार्थ का नहीं। उसके अनुसार, वैयक्तिक भौतिक-उपलब्धियों को लोककल्याण के लिए समर्पित किया जा सकता है और किया भी जाना चाहिए, क्योंकि वे हमें जगत् से ही मिली हैं, वे संसार की ही हैं, हमारी नहीं। सांसारिक-उपलब्धियाँ संसार के लिए है, अतः उनका लोकहित के लिए विसर्जन किया जाना चाहिए, लेकिन आध्यात्मिक-विकास या वैयक्तिक-नैतिकता को लोकहित के नाम पर कुंठित किया जाना उसे स्वीकार नहीं । ऐसालोकहित, जो व्यक्ति के चरित्र-पतन अथवा आध्यात्मिक-कुण्ठन से फलित होता हो, उसे स्वीकार नहीं है। लोकहित और आत्महित के सन्दर्भ में उसका स्वर्णिम सूत्र है-आत्महित करो और यथाशक्य लोकहित भी करो, लेकिन जहाँ आत्महित और लोकहित में द्वन्द्व हो और आत्महित के कुण्ठन पर ही लोकहित फलित होता हो, वहाँ आत्मकल्याण ही श्रेष्ठ है।३० आत्महित स्वार्थ नहीं है - आत्महित स्वार्थवाद नहीं है। आत्मकाम वस्तुतः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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