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________________ स्वहित बनाम लोकहित धारणा को लेकर ही आगे बढ़ती है। उसी सूत्र में आगे कहा है कि जैन-साधना के पाँचों महाव्रत सर्व प्रकार से लोकहित के लिए ही हैं।" अहिंसा की महत्ता बताते हुए कहा गया है। कि साधना के प्रथम स्थान पर स्थित यह अहिंसा सभी प्राणियों का कल्याण करने वाली है। यह भगवती-अहिंसा भयभीतों के लिए शरण के समान है, पक्षियों के आकाश-गमन समान निर्बाध रूप से हितकारिणी है। प्यासों को पानी के समान, भूखों को भोजन के समान, समुद्र में जहाज के समान, रोगियों के लिए औषधि के समान और अटवी में सहायक के समान है । " तीर्थङ्कर - नमस्कारसूत्र (नमोत्थुणं) में तीर्थङ्कर के लिए लोकनाथ, लोकहितकर, लोकप्रदीप, अभय के दाता आदि जिन विशेषणों का उपयोग हुआ है, वे भी दृष्टि की लोकमंगलकारी भावना को स्पष्ट करते हैं। तीर्थकरों का प्रवचन एवं धर्मप्रवर्त्तन प्राणियों के अनुग्रह के लिए होता है, न कि पूजा या सत्कार के लिए। 14 यदि यह माना जाए कि जैन-साधना केवल आत्महित, आत्मकल्याण की बात कहती है, तो फिर तीर्थंकर के द्वारा तीर्थप्रवर्तन या संघ-संचालन का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता, क्योंकि har की उपलब्धि के बाद उन्हें अपने कल्याण के लिए कुछ करना शेष ही नहीं रहता, अतः मानना पड़ेगा कि जैन-साधना का आदर्श आत्मकल्याण ही नहीं, वरन् लोककल्याण भी है। जैन- दार्शनिकों ने आत्महित की अपेक्षा लोकहित को सदैव ही अधिक महत्व दिया है। जैन- दर्शन के अनुसार, साधना की सर्वोच्च ऊँचाई पर स्थित सभी जीवन्मुक्त आध्यात्मिक पूर्णता की दृष्टि से समान ही होते हैं, फिर भी आत्महितकारिणी और लोकहितकारिणी -दृष्टि के आधार पर उनमें उच्चावच्च अवस्था को स्वीकार किया गया है। एक सामान्य-केवली (जीवन्मुक्त) और तीर्थंकर में आध्यात्मिक- पूर्णताएँ समान ही होती हैं, फिर भी अपनी लोकहितकारी - दृष्टि के कारण ही तीर्थंकर को सामान्य- केवली की अपेक्षा श्रेष्ठ माना गया है। आचार्य हरिभद्र के अनुसार, जीवन्मुक्तावस्था को प्राप्त कर लेने वालों में भी उनके लोकोपकारिता के आधार पर तीन वर्ग होते हैं - 1. तीर्थंकर, 2. गणधर, 3. सामान्य-वे - केवली । 1. तीर्थंकर - तीर्थंकर वह है, जो सर्वहित के संकल्प को लेकर साधना-मार्ग में आता है और आध्यात्मिक- पूर्णता प्राप्त कर लेने के पश्चात् भी लोकहित में लगा रहता है। सर्वहित, सर्वोदय और लोक-कल्याण ही उनके जीवन का ध्येय बन जाता है। 15 2. गणधर - सहवर्गीय हित में संकल्प को लेकर साधना - क्षेत्र में प्रविष्ट होने वाला और अपनी आध्यात्मिक- पूर्णता को प्राप्त कर लेने पर भी सहवर्गियों के हित एवं कल्याण Jain Education International 191 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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