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स्वहित बनाम लोकहित
सदाचरण की कीमत पर किया गया लोक-कल्याण उसे स्वीकार नहीं है। एक बौद्ध साधक विगलित शरीरवाली वेश्या की सेवा-शुश्रूषा तो कर सकता है, लेकिन उसकी कामवासना की पूर्ति नहीं कर सकता । बौद्धदर्शन में लोकहित का वही रूप आचरणीय है, जो नैतिकजीवन के सीमाक्षेत्र में हो। लोकहित नैतिक जीवन से ऊपर नहीं हो सकता । नैतिकता के समस्त फलों को लोकहित के लिए समर्पित किया जा सकता है, लेकिन स्वयं नैतिकता को नहीं । बौद्ध-विचारणा में लोकहित के पवित्र साध्य के लिए भ्रष्ट या अनैतिक-साधन कथमपि स्वीकार नहीं हैं। लोकहित वहीं तक आचरणीय है, जहाँ तक उसका नैतिकजीवन से अविरोध हो । यदि कोई लोकहित ऐसा हो, जो व्यक्ति के नैतिक एवं आध्यात्मिकमूल्यों के बलिदान पर ही सम्भव हो, तो ऐसी दशा में वह बहुजन हित आचरणीय नहीं है, वरन् स्वयं के नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की उपलब्धि ही आचरणीय है। धम्मपद में कहा है, व्यक्ति अपने अशुभाचरण से ही अशुद्ध होता है और अशुभ आचरण का सेवन नहीं करने पर ही शुद्ध होता है | शुद्धि और अशुद्धि प्रत्येक व्यक्ति की भिन्न-भिन्न है। दूसरा व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को शुद्ध नहीं कर सकता, इसलिए दूसरे व्यक्तियों के बहुत हित के लिए भी अपनी नैतिक-शुद्धि रूपी हित की हानि नहीं करे और अपने सच्चे हित और कल्याण को जाकर उसकी प्राप्ति में लगें। 42 संक्षेप में, बौद्ध आचार-दर्शन में ऐसा लोकहित ही स्वीकार्य है, जिसका व्यक्ति के आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास से अविरोध है । लोकहित का विरोध हमारी भौतिक उपलब्धियों से हो सकता है, लेकिन हमारे आध्यात्मिक विकास से उसका विरोध नहीं रहता। सच्चा लोकहित तो व्यक्ति की आध्यात्मिक या नैतिक प्रगति
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सूचक है। इस प्रकार, व्यक्ति की नैतिक तथा आध्यात्मिक प्रगति में सहायक लोकहित बौद्ध साधना का प्राण है। उस अवस्था में आत्मार्थ और परार्थ अलग-अलग नहीं रहते हैं। आत्मार्थ ही परार्थ बन जाता है और परार्थ ही आत्मार्थ बन जाता है, वह निष्काम होता
है।
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यद्यपि बौद्धदर्शन की हीनयान - शाखा स्वहितवादी और महायान - शाखा परहितवादी - आदर्शों के आधार पर विकसित हुई है, तथापि बुद्ध के मौलिक उपदेशों में हमें कहीं भी स्वहित और लोकहित में एकान्तवादिता नहीं दिखाई देती । तथागत तो मध्यममार्ग की प्रतिष्ठापना के हेतु ही उत्पन्न हुए, वे भला एकान्तदृष्टि को कैसे स्वीकार करते । मध्यममार्ग के उपदेशक भगवान् बुद्ध ने अपनी देशना में तो लोकहित और आत्महित के बीच सदैव ही. एक सांग-संतुलन रखा है, एक अविरोध देखा है। लोकहित और आत्महित जब तक नैतिकता की सीमा में हैं, तब तक न उनमें विरोध रहता है और न कोई संघर्ष ही होता है।
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