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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
विचारधाराएँ आत्मकल्याण (निवृत्ति) और लोक-कल्याण (प्रवृत्ति) को अलग-अलग देखती तो हैं, लेकिन उन्हें एक-दूसरे से पृथक्-पृथक् करने का प्रयास नहीं करतीं ।
प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों आवश्यक - निवृत्ति और प्रवृत्ति का समग्र विवेचन हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचाता है कि हम निवृत्ति या प्रवृत्ति का चाहे जो अर्थ ग्रहण करें, हर स्थिति में, एकान्त रूप से निवृत्ति या प्रवृत्ति के सिद्धान्त को लेकर किसी भी आचारर-दर्शन का सर्वांग विकास नहीं हो सकता। जैसे, जीवन में आहार और निहार- दोनों आवश्यक हैं, इतना ही नहीं, उनके मध्य समुचित सन्तुलन भी आवश्यक है, वैसे ही प्रवृत्ति और निवृत्तिदोनों आवश्यक हैं। पं. सुखलालजी का विचार है कि समाज कोई भी हो, वह मात्र निवृत्ति की भूल-भुलैया पर जीवित नहीं रह सकता और न नितांत प्रवृत्ति ही साध सकता है। यदि प्रवृत्ति- -चक्र का महत्व मानने वाले आखिर में प्रवृत्ति के तूफान और आँधी में फंसकर मर सकते हैं, तो यह भी सच है कि प्रवृत्ति का आश्रय लिए बिना मात्र निवृत्ति हवाई - किला बन जाती है। ऐतिहासिक और दार्शनिक सत्य यह है कि प्रवृत्ति और निवृत्ति मानव-कल्याणरूपी सिक्के के दो पहलू हैं । दोष, गलती, बुराई और अकल्याण से तब तक कोई बच नहीं सकता, जब तक कि दोष-निवृत्ति के साथ-साथ सद्गुण प्रेरक और कल्याणमय प्रवृत्ति में प्रवृत्त न हुआ जाए। बीमार व्यक्ति केवल कुपथ्य के सेवन से निवृत्त होकर ही जीवित नहीं रह सकता, उसे रोग निवारण के लिए पथ्य का सेवन भी करना होगा। शरीर से दूषित रक्त को निकाल डालना जीवन के लिए अगर जरूरी है, तो उसमें नए रक्त का संचार करना भी उतना ही जरूरी है | Si
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-व्यवस्था
प्रवृत्ति और निवृत्ति की सीमाएँ एवं क्षेत्र - जैन-दर्शन की अनेकांतवादी व यह मानती है कि न प्रवृत्तिमार्ग ही शुभ है और न एकांतरूप से निवृत्तिमार्ग ही शुभ है। प्रवृत्ति और निवृत्ति - दोनों में शुभत्व - अशुभत्व के तत्त्व हैं। प्रवृत्ति शुभ भी है और अशुभ भी । इसी प्रकार, निवृत्ति शुभ भी है और अशुभ भी । प्रवृत्ति और निवृत्ति के अपने-अपने क्षेत्र हैं, स्वस्थान हैं और अपने-अपने स्वस्थानों में वे शुभ हैं, लेकिन परस्थानों या क्षेत्रों में वे अशुभ हैं । केवल आहार से जीवन-यात्रा सम्भव है और न केवल निहार से । जीवन-यात्रा लिए दोनों आवश्यक हैं, लेकिन सम्यक् जीवन-यात्रा के लिए दोनों का अपने-अपने क्षेत्रों में कार्यरत होना भी आवश्यक है। यदि आहार के अंग निहार का और निहार के अंग आहार का कार्य करने लगे, अथवा आहार योग्य पदार्थों का निहार होने लगे और निहार के पदार्थों का आहार किया जाने लगे, तो व्यक्ति का स्वास्थ्य चौपट हो जाएगा। वे ही तत्त्व, जो अपने स्वस्थान एवं देशकाल से शुभ हैं, परस्थान में अशुभ रूप में परिणत हो जाएंगे। जैन- दृष्टिकोण - भगवान् महावीर ने प्रवृत्ति और निवृत्ति- दोनों को नैतिकविकास के लिए आवश्यक कहा है। इतना ही नहीं, उन्होंने प्रवृत्ति और निवृत्ति के
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