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________________ निवृत्तिमार्ग और प्रवृत्तिमार्ग 167 अपने-अपने क्षेत्रों की व्यवस्था भी की और यह बताया कि वे स्वक्षेत्रों में कार्य करते हुए ही नैतिक-विकास की ओर ले जा सकती है। व्यक्ति के लिए यह भी आवश्यक है कि वह प्रवृत्ति और निवृत्ति के स्वक्षेत्रों एवं सीमाओं को जाने और उनका अपने-अपने क्षेत्रों में ही उपयोग करे। जिस प्रकार मोटर के लिए गतिदायक यंत्र (एक्सीलेटर) और गतिनिरोधक यंत्र (ब्रेक) दोनों ही आवश्यक हैं, लेकिन साथ ही मोटर-चालक के लिए यह भी आवश्यक है कि दोनों के उपयोग के अवसरों या स्थानों को समझे और यथावसर एवं यथास्थान ही उनका उपयोग करे। दोनों के अपने-अपने क्षेत्र हैं और उन क्षेत्रों में ही उनका समुचित उपयोग यात्रा की सफलता का आधार है। यदि चालक उतार पर ब्रेक न लगाए और चढ़ाव पर एक्सीलेटर न दबाए, अथवा उतार पर एक्सीलेटर दबाए और चढ़ाव पर ब्रेक लगाए, तो मोटर नष्ट-भ्रष्ट हो जाएगी। महावीरने जीवन की व्यावहारिकता को गहराई से समझा था। साधु और गृहस्थ-दोनों के लिए ही प्रवृत्ति और निवृत्ति को आवश्यक माना, लेकिन साथ-साथ यह भी कहा कि दोनों के अलग-अलग क्षेत्र हैं। एक प्रबुद्ध विचारक के रूप में भगवान् महावीर ने कहा- “एक ओर से विरत होओ।" 52 यह कथन उनकी पैनी दृष्टि का परिचायक है। इसमें प्रवृत्ति और निवृत्ति के क्षेत्रों को अलग-अलग करते हुए सफल नियंता के रूप में उन्होंने कहा, असंयम, अर्थात् वासनाओं का जीवन समत्व से विचलन का, पतन का मार्ग है। यह जीवन का उतार है, अतः यहाँ ब्रेक लगाओ, नियंत्रण करो। इस दिशा में निवृत्ति को अपनाओ। संयम, अर्थात् आदर्शमूलक जीवन विकास का मार्ग है, वह जीवन का चढ़ाव है, उसमें गति देने की आवश्यकता है, अतः उस क्षेत्र में प्रवृत्ति को अपनाओ। बौद्ध-दृष्टिकोण-भगवान् बुद्ध ने भी प्रवृत्ति-निवृत्ति में समन्वय साधते हुए कहा है कि शीलव्रत-परामर्श, अर्थात् संन्यास का बाह्य-रूप से पालन करना ही सार है, यह एक अन्त है; काम-भोगों के सेवन में कोई दोष नहीं, यह दूसरा अन्त है, अन्तों के सेवन से संस्कारों की वृद्धि होती है, अतः साधक को प्रवृत्ति और निवृत्ति के सन्दर्भ में अतिवादी या एकांतिक-दृष्टि न अपनाकर एक समन्वयवादी-दृष्टि अपनाना चाहिए। ___ गीताका दृष्टिकोण-गीता का आचार-दर्शन एकांत रूप से प्रवृत्ति या निवृत्ति का समर्थन नहीं करता। गीताकार की दृष्टि में भी सम्यक् आचरण के लिए प्रवृत्ति और निवृत्ति-दोनों ही आवश्यक हैं। इतना ही नहीं, मनुष्य में इस बात का ज्ञान होना भी आवश्यक है कि कौन-से कार्यों में प्रवृत्ति आवश्यक है और कौन-से कार्यों में निवृत्ति। गीताकार का कहना है कि जिस व्यक्ति को प्रवृत्ति और निवृत्ति की सम्यक् दिशा का ज्ञान नहीं है, अर्थात् जो यह नहीं जानता कि पुरुषार्थ के साधनरूप किस कार्य में प्रवृत होना उचित है और उसके विपरीत, अनर्थ के हेतु किस कार्य से निवृत्त होना उचित है, वह आसुरी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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