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________________ निवृत्तिमार्ग और प्रवृत्तिमार्ग 165 प्रतीत नहीं होता। जैन और बौद्ध आचार-दर्शनों में प्रारम्भ में वैयक्तिक-कल्याण का स्वर ही प्रमुख था, लेकिन वहाँ पर भी हमें सामाजिक-भावना या लोकहित से पराङ्मुखता नहीं दिखाई देती है। बुद्ध और महावीर की संघ-व्यवस्था स्वयं ही इन आचार-दर्शनों की सामाजिक-भावना का प्रबलतम साक्ष्य है। दूसरी ओर, गीता का आचार-दर्शन, जो लोक-संग्रह अथवा समाज कल्याण की दृष्टि को लेकर ही आगे आया था, उसमें भी वैयक्तिक-निवृत्ति का अभाव नहीं है। तीनों आचार-दर्शन लोक-कल्याण की भावना को आवश्यक मानते हैं, लेकिन उसके लिए वैयक्तिक-जीवन में निवृत्ति आवश्यक है। जब तक वैयक्तिक-जीवन में निवृत्ति की भावना का विकास नहीं होता, तब तक लोक-कल्याण की साधना सम्भव नहीं है। आत्महित, अर्थात् वैयक्तिक-जीवन में नैतिक-स्तर का विकास लोकहित का पहला चरण है। सच्चा लोक-कल्याण तभी सम्भव है, जब व्यक्ति निवृत्ति के द्वारा अपना नैतिक-विकास कर ले। वैयक्तिक नैतिक-विकास एवं आत्म-कल्याण के अभाव में लोकहित की साधना पाखण्ड है, दिखावा है। जिसने आत्म-विकास नहीं किया है, जो अपने वैयक्तिक-जीवन को नैतिक-विकास की भूमिका पर स्थित नहीं कर पाया है, उससे लोक-मंगल की कामना सबसे बड़ाभ्रम है, छलना है। यदि व्यक्ति के जीवन में वासना का अभाव नहीं है, उसकी लोभ की ज्वाला शान्त नहीं हुई है, तो उसके द्वारा किया जाने वाला लोकहित भी इनसे ही उद्भूत होगा। उसके लोकहित में भी स्वार्थ एवं वासना छिपी होगी और ऐसा लोकहित, जो वैयक्तिक-वासना एवं स्वार्थ की पूर्ति के लिए किया जा रहा है, लोकहित ही नहीं होगा। उपाध्याय अमरमुनिजी जैन-दृष्टि को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं, व्यक्तिगत जीवन में जब तक निवृत्ति नहीं आ जाती, तब तक समाज सेवा की प्रवृत्ति विशुद्ध नहीं हो सकती। अपने व्यक्तिगत जीवन में मर्यादाहीन भोग और आकांक्षाओं से निवृत्ति लेकर समाजकल्याण के लिए प्रवृत्त होना जैन-दर्शन का पहला नीतिधर्म है। व्यक्तिगत जीवन का शोधन करने के लिए असत्कर्मों से पहले निवृत्ति करनी होती है। जब निवृत्ति आएगी, तो जीवन पवित्र और निर्मल होगा, अन्तःकरण विशुद्ध होगाऔर तब जो भी प्रवृत्ति होगी, वह लोक-हिताय एवं लोक-सुखाय होगी। जैन दर्शन की निवृत्ति का हार्द व्यक्तिगत जीवन में निवृत्ति और सामाजिक-जीवन में प्रवृत्ति है। लोकसेवक या जनसेवक अपने व्यक्तिगत स्वार्थ एवं द्वन्द्वों से दूर रहे, यह जैन-दर्शन की आचार संहिता का पहला पाठ है। ___आत्महित (वैयक्तिक-नैतिकता) और लोकहित (सामाजिक-नैतिकता) परम्पराविरोधी नहीं हैं, वे नैतिक-पूर्णता के दो पहलू हैं। आत्महित में परहित और परहित में आत्महित समाहित है। आत्मकल्याण और लोककल्याण एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, जिन्हें अलग देखा तो जा सकता है, अलग किया नहीं जा सकता। जैन, बौद्ध एवं गीता की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003608
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages568
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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